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१७८ / जैनतत्त्वविद्या कारण। प्रकारान्तर से इन्हें परिणामी कारण और सहकारी कारण भी कहा जाता है।
जो कारण स्वयं कार्यरूप में परिणत हो जाता है, वह उपादान कारण या परिणामी कारण कहलाता है। जैसे—मिट्टी घड़े का उपादान कारण है । कपास, वस्त्र का उपादान कारण है। आभूषण का उपादान कारण है सोना । मावा का उपादान कारण है दूध । रोटी का उपादान कारण है आटा। इस प्रकार जितने पहले कारण रूप में दृष्टिगत होते हैं और बाद में कार्यरूप में परिणत हो जाते हैं, वे सभी उपादान कारण कहलाते हैं।
उपादान मूलभूत कारण है। उसको कार्य रूप में परिणत करते समय जिन अन्य कारणों का सहयोग रहता है, वे सब निमित्त या सहकारी कारण माने गए हैं। निमित्त कारण मूलभूत तत्त्व नहीं है। फिर भी कार्य की निष्पन्नता में इसका महत्त्व कम नहीं है। बहुत बार तो ऐसा होता है कि उपादान कारण होने पर भी निमित्त कारण के अभाव में बनता-बनता काम रुक जाता है। मिट्टी तैयार पड़ी है, किन्तु चक्र, सूत्र आदि का योग न हो तो घड़े की निष्पत्ति कभी नहीं हो सकती । यही स्थिति वस्त्र, आभूषण आदि की है। निमित्त कारण के समुचित योग बिना कार्य नहीं हो पाता। इसलिए कार्य की निष्पत्ति में उपादान और निमित्त दोनों ही कारणों की मूल्यवत्ता प्रमाणित होती है।
कार्यकारणवाद के इस सन्दर्भ में एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कारण कार्यरूप में परिणत होता है कर्ता के सहयोग से। यदि कर्ता सक्रिय न हो तो हजारों वर्ष तक कारण, कारण ही बना रहेगा। उस स्थिति में कर्ता को क्या माना जाए? इस प्रश्न के समाधान में दार्शनिक विचारधारा यही रही है कि कर्ता भी निमित्त कारण ही है। यदि उसे उपादान मान लिया जाए तो उसके अभाव में कोई कार्य हो ही नहीं सकता। बिना बोये ही अंकुरित होने वाले तृण, घास आदि कार्यों में किसी भी कर्ता का कर्तृत्व नहीं रहता। जिन-जिन कार्यों की निष्पत्ति में कर्ता की सक्रिय भूमिका रही है, वहां उसे निमित्त कारण ही माना जा सकता है। जैसे-मिट्टी घड़े का उपादान कारण है। चक्र, सूत्र आदि उसके निमित्त कारण हैं और कुंभकार उसके बनने में निमित्त बनता है, इसलिए वह भी निमित्त कारण ही है। इस दृष्टि से कारण दो ही माने गए हैं।
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