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वर्ग ४, बोल २५ / १७७ हर काम की सफलता में इन पांचों समवायों का योग नितान्त अपेक्षित है। यदि इनमें से कोई एक तत्त्व भी असहयोग कर देता है तो बनता-बनता काम रुक जाता है। . इस समूचे प्रतिपाद्य को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है—एक किसान खेती करना चाहता है। उसके लिए उसे पांचों समवायों की अनुकूलता अपेक्षित होगी। अन्यथा वह अपने कृषि-कर्म में सफल नहीं हो सकता ! जैसेकाल- वर्षा का समय अथवा जिस समय सिंचाई के साधन सुलभ हों।
वह भी दो-चार महीनों का समय। स्वभाव-गेहूं या बाजरे की फसल के लिए इन चीजों को निष्पन्न करने
वाले बीज। कर्म-- संचित शुभ कर्म अथवा भाग्य की अनुकूलता। पुरुषार्थ-जमीन को सम करने से लेकर फसल निकालने तक में किया
जाने वाला श्रम। नियति-उपर्युक्त चारों अनुकूलताओं की स्थिति में भी अतिवृष्टि, अनावृष्टि,
टिड्डी, चूहों आदि के उपद्रव का अभाव। इन पांच कारणों में एक भी कारण नहीं होता है तो खेती करने का उद्देश्य फलित नहीं होता। खेती की तरह किसी भी कार्य की निष्पत्ति में इन पांचों की उपस्थिति अनिवार्य मानी गई है।
२५. कारण के दो प्रकार हैं
१. उपादान (परिणामी) २. निमित्त (सहकारी) कारण वह होता है, जो कार्य की निष्पत्ति में निश्चित रूप से अपेक्षित हो । इस तथ्य को इस भाषा में भी कहा जा सकता है कि जिसके बिना कार्य की निष्पत्ति न हो, वह कारण है। कार्य और कारण में अविनाभावी सम्बन्ध है । दर्शनशास्त्र में अनेक प्रकार के सम्बन्ध माने गये हैं, जैसे—स्वस्वामीभाव, जन्यजनकभाव, धार्यधारकभाव, भोज्यभोजकभाव, वाह्यवाहकभाव, आश्रयआश्रयीभाव, कार्यकारणभाव आदि।
मुख्य रूप से कारण के दो प्रकार माने गये हैं—उपादान कारण और निमित्त
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