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________________ १७६ / जैनतत्त्वविद्या काल-काल नियामक तत्त्व है । इसके बिना कार्य निष्पन्न नहीं होता । आदमी कितना ही पुरुषार्थ करे, काल-लब्धि का योग होने से ही उसका परिणाम आता है। दूध से दही बनता है और दही से मक्खन । दही और मक्खन की निष्पत्ति में जितना कालक्षेप होना चाहिए, उसके होने से ही वे चीजें तैयार हो सकती हैं। औषधि का सेवन करते ही स्वास्थ्य-लाभ चाहने वाले रोगी को हताश होना पड़ता है। क्योंकि कोई भी दवा निश्चित काल के बाद ही अपना प्रभाव दिखाती है। इसी प्रकार बीज का वपन करते ही वृक्ष नहीं बनता और वृक्ष बनते ही उसमें फल नहीं लगते । स्वभाव-जिस वस्तु का जैसा स्वभाव है, वह उसी रूप में काम करती है। आम की गुठली बोने से ही आम पैदा हो सकता है। नीम के पेड़ में कभी आम के फल नहीं लगते । दीर्घ काल और प्रबल पुरुषार्थ का योग होने पर भी कोई वस्तु अपने स्वभाव को छोड़कर अन्य रूप में परिणत नहीं हो सकती। कर्म-कर्म पुरुषार्थ की फलश्रुति है। इसे दूसरे शब्दों में भाग्य भी कहा जा सकता है। जब तक कर्म की अनुकूलता नहीं होती है, वांछित काम पूरा नहीं होता। एक महिला एक ही समय में दो बच्चों को जन्म देती है। उन्हें एक पर्यावरण में रखा जाता है और उनकी शिक्षा-दीक्षा भी साथ होती है। दोनों बच्चे समान रूप से पुरुषार्थ करते हैं। फिर भी एक विद्वान् बन जाता है और दूसरा मूर्ख रह जाता है। यह सब कर्म का खेल है। पुरुषार्थ-कर्म और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रथम क्षण का पुरुषार्थ पुरुषार्थ कहलाता है और वही दूसरे क्षण में कर्म बन जाता है। कर्म अच्छे होने पर भी पुरुषार्थ के बिना काम सिद्ध नहीं होता। खेत में अच्छी वर्षा होने, हल और बीज पास में होने पर भी जब तक किसान पुरुषार्थ कर बीजों का वपन नहीं करता है, खेत अंकुरित नहीं हो सकता। भोजन सामने पड़ा रहने पर भी हाथ और मुंह का पुरुषार्थ किए बिना पेट नहीं भरता। नियति-नियति का अर्थ है भवितव्यता या होनहार । जिस घटना को जिस रूप में घटित होना है, लाख प्रयत्न करने पर भी वह टल नहीं सकती। इसका नाम है—नियति । दर्शन की भाषा में यह निकाचित कर्म-बन्ध की स्थिति है। इसका सर्जक पुरुषार्थ है । पर इसकी क्रियान्विति में पुरुषार्थ का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। सही दिशा में पर्याप्त पुरुषार्थ करने पर भी सही परिणाम नहीं आता है तो उसे नियति पर ही छोड़ना पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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