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________________ इतरेतर अभाव एक द्रव्य की पर्याय में दूसरे द्रव्य की पर्याय का न होना इतरेतर अभाव है । इसे अन्योन्याभाव भी कहा जाता है। जैसे— स्तम्भ में कुम्भ का अभाव है और कुम्भ में स्तम्भ का अभाव है । इस अभाव की आदि भी है और अन्त भी है I अत्यन्त अभाव एक वस्तु का स्वरूप दूसरी वस्तु से सर्वथा भिन्न होता है । किसी भी समय वह वस्तु दूसरी वस्तु के स्वरूप को प्राप्त नहीं हो सकती। इसका नाम अत्यन्त अभाव है। जैसे—रूपादि के समवाय पुद्गल में ज्ञानादि समवाय जीव का अत्यन्त अभाव है। यदि इस अभाव को न माना जाए तो किसी भी वस्तु का असाधारण रूप में कथन नहीं हो सकता । उक्त चार अभावों को अस्वीकार कर दिया जाए तो विश्व की व्यवस्था का संचालन नहीं होगा । प्राग् अभाव के अस्वीकार से कभी नये पर्याय की उत्पत्ति नहीं होगी । प्रध्वंस अभाव के अभाव में जो कार्य हमारे सामने है, उसका कभी अन्त नहीं होगा । इतरेतर अभाव के अस्वीकार कर देने से सब वस्तुओं में सबका अस्तित्व हो जाएगा और अत्यन्त अभाव को न मानने से सब वस्तुएं एक ही रूप में अवस्थित हो जायेंगी । इसलिए भाव की भांति अभाव भी वस्तु का धर्म है, यह कथन युक्तिसंगत 1 है T वर्ग ४, बोल २४ / १७५ २४. समवाय के पांच प्रकार हैं ४. पुरुषार्थ ५. नियति Jain Education International १. काल २. स्वभाव ३. कर्म चौबीसवें बोल में समवाय की चर्चा है । समवाय का अर्थ है समूह | जैन दर्शन के अनुसार किसी भी कार्य की निष्पत्ति में एक कारण समूह का योग रहता है, जो समवाय कहलाता है । समवाय के पांच प्रकार हैं—-काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति । कुछ लोग केवल कर्म और पुरुषार्थ को ही स्वीकार करते हैं । किन्तु देखा यह जाता है कि कर्म और पुरुषार्थ के साथ कुछ अन्य तत्त्व भी अपेक्षित हैं। उन्हें गौण कर मनुष्य वांछित अर्थ की सिद्धि नहीं कर सकता । इस दृष्टि से समवाय के पांच प्रकारों की अर्थवत्ता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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