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________________ १६६ / जैनतत्त्वविद्या नय कितने हो सकते हैं ? इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं है । क्योंकि वस्तु के जितने धर्म होते हैं और उन पर विचार करने या बोलने के जितने तरीके होते हैं, वे सभी नय कहलाते हैं। इस क्रम से नय अनन्त हो सकते हैं। किन्तु उनका वर्गीकरण किया जाए तो वे सब सात नयों में समाविष्ट हो जाते हैं । सात नय इस प्रकार हैंनैगम नय वस्तु के काल्पनिक और वास्तविक सब धर्मों को स्वीकार करने वाला विचार नैगम नय है। सबसे अधिक स्थूल और व्यावहारिक नय है । सत् और असत् का कोई परहेज इसे नहीं है। जैसे–चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के लिए कहा जाता है कि आज भगवान महावीर का जन्मदिन है । इसी प्रकार मकान का निर्माण करवाते समय कहना कि यह शयन-कक्ष है, यह रसोईघर है आदि । ये वाक्य काल्पनिक हैं । क्योंकि महावीर का जन्मदिन तो हजारों वर्ष पहले हुआ था। इसी प्रकार शयनकक्ष या रसोईघर तो तब होंगे, जब उनको उस रूप में लिया जाएगा। किन्तु उपर्युक्त वचनप्रयोग सम्मत प्रयोग है। क्योंकि नैगम नय अतीत और भविष्य दोनों को वर्तमान में आरोपित कर लोक-व्यवहार का संचालन करता है। संग्रह नय नैगम नय की विस्तारवादी विचारधारा को एकदम संक्षिप्त और सीमित करने वाला विचार संग्रह नय है। यह सत् मात्र को स्वीकार करता है, किन्तु असत् इसका विषय नहीं है। एक दृष्टि से यह अद्वैतवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। इसके अनुसार सारा संसार एक है। क्योंकि संसार के सभी पदार्थ सत्ता से जुड़े हुए हैं। इसे नहीं माना जाए तो उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। इसीलिए सत्-अस्तित्ववादी विचारधारा समग्र विश्व को एक ही नजरिए से देखती है। व्यवहार नय ____ संग्रह नय द्वारा परिकल्पित एक तत्त्व में व्यवहारोपयोगी भेद की कल्पना करने वाला विचार व्यवहार नय है। इसके अनुसार संग्रह नय की विचारधारा अव्यावहारिक है। क्योंकि इससे जगत् का समूचा व्यवहार रुक जाता है। इसलिए यह नय मानता है कि जो सत् है, वह द्रव्य और पर्याय—इन दो भेदों में बंटा हुआ है। जो द्रव्य है, वह धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छह भागों में विभक्त है। जो पर्याय है, वह भी सहभावी और क्रमभावी----इस वर्गीकरण के द्वारा ही वस्तु का बोध करने में निमित्त बनती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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