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________________ ___ वर्ग ४, बोल १९ / १६५ १९. नय के सात प्रकार हैंतीन द्रव्यार्थिक १. नैगम २. संग्रह ३. व्यवहार चार पर्यायार्थिक१. ऋजुसूत्र ३. समभिरूढ़ २. शब्द ४. एवंभूत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के विवक्षित धर्म का ग्रहण और अन्य धर्मों का खण्डन न करने वाले विचार को नय कहा जाता है। नय के सात प्रकार बतलाए गए हैं। नय का प्रतिपादन अनेक दृष्टियों से किया जा सकता है । प्रस्तुत बोल में द्रव्य, पर्याय आदि के आधार पर वस्तु-प्रतिपादन को नय कहा गया है। संसार में अनन्त वस्तुएं हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म-अवस्थाएं होती हैं। जब भी किसी वस्तु का प्रतिपादन किया जाता है, तब एक साथ उन अनन्त धर्मों के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं होता। क्योंकि वाणी में अभिव्यक्ति की क्षमता इतनी ही है। कुछ धर्मों का प्रतिपादन करने से वस्तु का बोध अधूरा रहता है। इस अधूरे अवबोध को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए नय के प्रयोग की सार्थकता है। ___ मनुष्य का सारा व्यवहार वाणी पर आधारित है। जो कुछ बोला जाता है, वह सारा नय का प्रयोग होता है। शब्दों से उसे नय कहा जाए या नहीं, वचन की सारी विवक्षाएं नय के द्वारा ही नियन्त्रित होती हैं। जैसे कोई व्यक्ति कवि है, लेखक है, वक्ता है, दार्शनिक है, समालोचक है और भी बहुत कुछ है किंतु जिस समय किसी एक गुण के बारे में बताया जाता है उस समय अन्य सभी गुण उपेक्षित हो जाते हैं। अन्यथा विवेचन का आधार ही नहीं बनता। यहां प्रश्न हो सकता है कि शेष सब गुण कहां गए? उन गुणों का लोप नहीं होता है। पर वर्तमान में जिस गुण की उपयोगिता दृष्टिगत होती है, उसे ही वाणी का विषय बनाया जाता है। ____ वस्तु का बोध करने का जहां तक प्रश्न है, समग्रता से हो सकता है पर उस अखंड वस्तु के आधार पर व्यवहार नहीं चलता। इसलिए उसका उपयोग खण्डशः किया जाता है । यह खण्डशः उपयोग या प्रतिपादन की पद्धति ही तो नय है । इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वारा दूसरे के विचारों को उसके अभिप्राय के अनुरूप ही समझने का प्रयत्न किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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