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________________ वर्ग ४, बोल १९ / १६७ उपर्युक्त तीनों नयों को द्रव्यार्थिक नय माना जाता है। क्योंकि ये द्रव्य को मुख्य मान कर काम करते हैं। इनके बाद जो चार नय हैं, वे पर्याय के आधार पर तत्त्व का निरूपण करते हैं। इसलिए उन्हें पर्यायार्थिक नय कहा जाता है । ऋजुसूत्र वस्तु की वर्तमान पर्याय को व्याख्यायित करने वाली विचारधारा ऋजुसूत्र नय है । इसके अनुसार द्रव्य का कोई मूल्य नहीं है । क्योंकि वह हमारे काम में नहीं आ सकता। जो तत्त्व काम में न आए, जिसका कोई उपयोग न हो, उसे मानने से क्या लाभ? हमारा समूचा व्यवहार व्यक्ति या वस्तु की वर्तमान अवस्था के आधार पर चलता है। तत्त्व-बोध का सबसे ऋजु दृष्टिकोण यही है। इसलिए वर्तमान में कोई व्यक्ति साधु है तो उसे साधु माना जाए। अतीत या भविष्य की कल्पना के आधार पर उसे मानने में कोई औचित्य नहीं है। शब्द नय लिंग, वचन आदि के आधार पर शब्द की भिन्नता का बोध कराने वाली विचारधारा का नाम शब्द नय है । यह ऋजुसूत्र नय से भी आगे बढ़ जाता है । उसके अनुसार वस्तु की वर्तमान पर्याय का ग्रहण सत्य है । किन्तु यह कहता है कि वर्तमान पर्याय भी शब्द नय के द्वारा ही अपने अस्तित्व का सही बोध करा सकती है। जैसे-लेखक और लेखिका दो शब्द हैं। दोनों लेखन पर्याय का बोध करवाते हैं। किन्तु इनमें कौन पुरुष है और कौन स्त्री ? यह ज्ञान शब्द नय के द्वारा होता है । इसी प्रकार एकवचन और बहुवचन आदि का बोध भी इसी नय के आधार पर होता है। समभिरूढ़ नय पर्यायवाची शब्दों के भेद से अर्थ में भेद करने वाली विचारधारा का नाम समभिरूढ़ नय है। इसके अनुसार प्रत्येक वस्तु स्वरूपनिष्ठ होती है। इस नय की दृष्टि से कोई भी शब्द किसी का पर्यायवाची नहीं होता । कोशकारों ने पर्यायवाचक शब्दों का जो संकलन किया है, वह गलत है । क्योंकि प्रत्येक शब्द स्वतंत्र अर्थ का बोधक होता है। जैसे—भिक्षु, तपस्वी, साधु, मुमुक्षु आदि शब्द एकार्थक हैं । किन्तु समभिरूढ़ नय कहता है कि भिक्षा करने वाला भिक्षु होता है। तपस्या करने वाला तपस्वी होता है। साधना करने वाला साधु होता है और मोक्ष की इच्छा करने वाला मुमुक्षु होता है । साधु होने मात्र से ही कोई भिक्षु या तपस्वी नहीं हो सकता। जिस प्रकार एक वस्तु का दूसरी वस्तु में संक्रमण नहीं होता, वैसे ही एक अर्थ का दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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