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वर्ग ४, बोल १५ / १५९ तीर्थंकरों की वाणी का ग्रहण, आकलन और संपादन करते हैं गणधर । गणधरों द्वारा संकलित अर्हत्वाणी सूत्रागम कहलाती है । अर्हत्वाणी के आधार पर गणधर सूत्र रूप में जिन आगमों का संकलन करते हैं, वे आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं अंगप्रविष्ट आगमों की संख्या बारह है । इसलिए उन्हें द्वादशांगी कहा जाता है 1
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अंगप्रविष्ट आगमों को आधार बनाकर कुछ विशिष्टज्ञानी आचार्य नये सूत्रों की रचना करते हैं, वे अंगबाह्य कहलाते हैं ।
जैन वाङ्मय में अंगप्रविष्ट आगमों का विशेष स्थान रहा है । उनको नियत श्रुत माना गया है और अंगबाह्य को अनियत श्रुत । अंगप्रविष्ट आगम स्वतः प्रमाण माने जाते हैं । अंगबाह्य आगमों की प्रामाणिकता अंगप्रविष्ट आगमों पर आधारित
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१५. अंगप्रविष्ट (द्वादशांगी) के बारह प्रकार हैं
५. भगवती
६. ज्ञाताधर्मकथा
१. आचारांग
९. अनुत्तरोपपातिकदशा
२. सूत्रकृतांग
१०. प्रश्नव्याकरण
३. स्थानांग
७. उपासकदशा
११. विपाक श्रुत
४. समवायांग
८. अंतकृतदशा
१२. दृष्टिवाद
चौदहवें बोल में यह बताया जा चुका है कि तीर्थंकर द्वारा अर्थ रूप में कहे गए और गणधरों द्वारा सूत्र रूप में गुंथे हुए आगम अंगप्रविष्ट कहलाते हैं । अंगप्रविष्ट आगम बारह हैं। इस दृष्टि से इन्हें द्वादशांगी भी कहा जाता है ।
प्राचीनकाल में आगम लिपिबद्ध नहीं थे । वे मौखिक परम्परा से ही आगे से आगे संक्रान्त होते थे । भगवान महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष तक आगम लिखे नहीं गए । इस काल में बार-बार दुष्काल पड़े। दुष्काल के कारण एक देश से दूसरे देश में जाने और भिक्षा संबंधी कठिनाइयों से जूझने में साधुओं के स्वाध्याय का क्रम शिथिल हो गया। इससे कण्ठस्थ आगमज्ञान की विस्मृति होने लगी। कुछ आचार्यों का यह अभिमत है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार वर्ष में चौदह पूर्वों का विच्छेद हो गया । उस समय एक भी पूर्व को पूरी तरह से जानने वाला कोई साधु नहीं बचा। चौदह पूर्व दृष्टिवाद आगम के अंतर्भूत थे। ऐसा माना जाता है कि चौदह पूर्वों का ज्ञान पढ़ाने से नहीं आता । इस ज्ञान की अपनी तकनीक होती है । उसकी हम वर्तमान के कम्प्यूटर यंत्र के साथ तुलना कर
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