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________________ १५८ / जैनतत्त्वविद्या सम्यक् श्रुत मिथ्याश्रुत सादिश्रुत अनादिश्रुत सपर्यवसितश्रुत जिस श्रुतज्ञान का अन्त होने वाला हो । अपर्यवसितश्रुत जिस श्रुतज्ञान का अन्त होने वाला न हो । गमिकश्रुत सम्यक् दृष्टि का श्रुत, मोक्ष साधना में सहायक श्रुत | मिथ्यादृष्टि का श्रुत, मोक्ष साधना में बाधक श्रुत । जिस श्रुतज्ञान की आदि हो । जिस श्रुतज्ञान की आदि न हो । शब्दात्मक रचना की अपेक्षा श्रुत सादि- सान्त होता है और सत्य के रूप में या प्रवाह के रूप में अनादि - अनन्त । जिसमें सरीखे पाठ —-आलापक होते हैं। किसी प्रसंग का कुछ वर्णन विस्तार से किया जाता है और उसके बाद पूर्वोक्त पाठ की भुलावण देते हुए 'सेसं तहेव भाणियव्वं' इस वाक्यांश के द्वारा पाठ पूरा कर दिया जाता है। इस प्रकार एक सूत्र पाठ का संबंध दूसरे सूत्र के पाठ से जुड़ा रहता है। बारहवां अंग दृष्टिवाद गमिक श्रुत का उदाहरण है । अगमिकश्रुत जिसमें पाठ सरीखे न हों । अंगप्रविष्टश्रुत गणधरों के रचे हुए आगम (बारह अंग), जैसे - आचार, सूत्र कृत आदि । अनंगप्रविष्ट गणधरों के अतिरिक्त अन्य आचार्यों द्वारा रचे हुए ग्रन्थ । श्रुतज्ञान के ये चौदह प्रकार विवक्षा के आधार पर किए गए हैं । मूलतः श्रुतज्ञान वही है, जो दूसरों को समझाने में सहायक बनता है । Jain Education International १४. आगम के दो प्रकार हैं१. अंगप्रविष्ट २. अंगबाह्य तीर्थंकर अपनी साधना के समय पूरी तरह से आत्मलक्षी होते हैं । साधनाकाल में वे न किसी को उपदेश देते हैं, न दीक्षा देते हैं और न किसी धर्मसंघ का संचालन करते हैं। उनका प्रवचन किसी निश्चित बिंदु पर नहीं होता । उन्हें जो कुछ कहना होता है, वे मुक्तभाव से बोलते हैं। तीर्थंकरों के प्रवचन सूत्रशैली में नहीं होते । वे विस्तृत रूप से अर्थ का प्रतिपादन करते हैं । इस दृष्टि से उनके प्रवचन अर्थागम कहलाते हैं । 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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