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१६० / जैनतत्त्वविद्या
सकते हैं । अन्तर्मुहूर्त में चौदह पूर्वों को सीखने और उनका प्रत्यावर्तन करने की क्षमता आचार्य स्थलिभद्र के साथ विच्छिन्न हो गई ।
आचारांग आदि ग्यारह अंगों में भी समय-समय पर हुई वाचनाओं के मध्य जोड़-तोड़ का क्रम चलता रहा है, ऐसा माना जा सकता है । आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध की रचना बाद में हुई, यह भी एक मान्यता है । इसी प्रकार अन्य आगमों में भी कुछ परिवर्तन होते रहे हैं। देश, काल संबंधी विविध कठिनाइयों और परिवर्तनों के बावजूद द्वादशांगी के ग्यारह अंग आज काफी अच्छे रूप में उपलब्ध हैं, यह विशेष बात है ।
१६. अंगबाह्य (उपांग) के बारह प्रकार हैं
१, औपपातिक
२. राजप्रश्नीय
३. जीवाजीवाभिगम
४. प्रज्ञापना
५. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति
६. चन्द्रप्रज्ञप्ति
मूल चार हैं
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१. दशवैकालिक
२. उत्तराध्ययन
छेद चार हैं
७. सूर्यप्रज्ञप्ति
८. कल्पिका (निरयावलिका)
९. कल्पवतंसिका
१०. पुष्पिका
११. पुष्पचूलिका
१२. वृष्णिदशा
३. नन्दी
४. अनुयोगद्वार
१. निशीथ
२. व्यवहार
आवश्यक सूत्र छह विभाग वाला है
१. सामायिक
२. चतुर्विंशतिस्तव
३. बृहत्कल्प
४. दशाश्रुतस्कन्ध
४. प्रतिक्रमण
५. कायोत्सर्ग
६. प्रत्याख्यान
३. वन्दना 'जैन आगम' भारतीय प्राच्य विद्या का अक्षय भण्डार है। जैन आगमों में जीवन और जगत् से संबंधित इतने विविध विषय हैं कि एक-एक आगम पर कई
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