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________________ १५२ / जैनतत्त्वविद्या एक, दो, तीन या चार-इस क्रम से भी हो सकते हैं । एक हो या चार, इतना निश्चित है कि इनके क्रम का अतिक्रमण नहीं होता अर्थात् अवग्रह से पहले ईहा नहीं होगी, ईहा से पहले अवाय नहीं होगा और अवाय से पहले धारणा नहीं होगी। धारणा में पूरी चतुष्टयी को होना ही है। किंतु ईहा और अवाय में चारों की अवस्थिति नहीं होती। कुछ दार्शनिक अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा में कोई विशेष अन्तर नहीं देखते, किंतु वास्तव में इन सबका स्वतंत्र अस्तित्व है । उसे प्रमाणित करने वाले तीन हेतु हैं १. एक पदार्थ के ज्ञान में सबके होने की अनिवार्यता नहीं है। २. ये एक-दूसरे से विशिष्ट, विशिष्टतर ज्ञानधारा का प्रकाशन करते हैं। ३. इनके होने का निश्चित क्रम है। उस क्रम का व्यतिक्रम नहीं हो सकता। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के ये चारों ही प्रकार हमारी ज्ञानचेतना को विशद बनाने वाले हैं और लोकव्यवहार को संचालित करने में भी बहुत उपयोगी हैं। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का संबंध पांच इन्द्रियों और मन के साथ है । इन छहों का व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के साथ योग करने पर ६४५ =३०) तीस भेद हैं। चक्षु इन्द्रिय और मन के व्यंजनावग्रह नहीं होता। इस प्रकार तीस में से दो भेद कम कर देने पर सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अथवा श्रुतनिश्रित मति के अठाईस भेद होते हैं। ११. परोक्ष के दो प्रकार हैं१. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान जिस ज्ञान में दूसरे निमित्तों का सहयोग अपेक्षित हो, उसे परोक्ष ज्ञान माना जाता है । उसके दो भेद होते हैं—मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान आदि मतिज्ञान के ही प्रकार हैं। मतिज्ञान का एक नाम आभिनिबोधिक ज्ञान भी है। शब्द, संकेत आदि के सहारे होने वाला मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान है। सामान्यतः मतिज्ञान और श्रुतज्ञान साथ-साथ ही रहते हैं। जहां मतिज्ञान होता है, वहां श्रुतज्ञान होता है और जहां श्रुतज्ञान होता है, वहां मतिज्ञान होता है, फिर भी इसमें कुछ अन्तर है, जिसके कारण दो अलग ज्ञान मानने की सार्थकता है। जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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