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________________ वर्ग४, बोल १२ / १५३ • मतिज्ञान मननप्रधान होता है। श्रुतज्ञान शब्दप्रधान । • मतिज्ञान से होने वाला बोध स्वगत होता है। श्रुतज्ञान स्व और पर दोनों को बोध देता है। मतिज्ञान मूक है । श्रुतज्ञान वचनात्मक है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान होने के बाद ही होता है। मतिज्ञान श्रुतपूर्वक नहीं होता। मतिज्ञान का विषय केवल वर्तमानकाल है । श्रुतज्ञान का विषय त्रैकालिक • मतिज्ञान छाल के समान है। क्योंकि वह श्रुतज्ञान का कारण है। • श्रुतज्ञान रज्जू के समान है। क्योंकि वह मतिज्ञान का कार्य है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान जिसके पास होता है वह व्यक्ति सम्यक्त्वी है तो उसका ज्ञान मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान कहलाता है । मिथ्यात्वी है तो उसका ज्ञान मतिअज्ञान एवं श्रुतअज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान और अज्ञान से तत्त्व के बोध में कोई अंतर नहीं रहता। पात्र के भेद से ज्ञान और अज्ञान का वर्गीकरण किया गया है। १२. मतिज्ञान के चार प्रकार हैं१. औत्पत्तिकी बुद्धि ३. कार्मिकी (कर्मजा) बुद्धि २. वैनयिकी बुद्धि ४. पारिणामिकी बुद्धि इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान कहलाता है। उसके दो भेद हैं १. श्रुतनिश्रित मति २. अश्रुतनिश्रित मति।। जो बुद्धि अतीत में शास्त्रों के पर्यालोचन से परिष्कृत हो गई हो, पर वर्तमानकाल में शास्त्र-पर्यालोचन के बिना ही जिसकी उत्पत्ति हो, वह बुद्धि श्रुतनिश्रित मति कहलाती है। शास्त्रों के अभ्यास बिना ही विशिष्ट क्षयोपशम भाव से यथार्थ अवबोध कराने वाली बुद्धि अश्रुतनिश्रित मति कहलाती है । श्रुतनिश्रित मति का समावेश सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में किया गया है। उसके भेदों का विवेचन इसी वर्ग के दसवें बोल में किया जा चुका है। अश्रुतनिश्रित मति के चार प्रकारों की व्याख्या इस बोल में है। औत्पत्तिकी जो कभी देखा नहीं, जिसके बारे में कभी सुना नहीं, उस अर्थ के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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