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वर्ग ४, बोल ५ / १४५ ओर चार लाख योजन का लवण समुद्र, उसके दोनों ओर आठ लाख योजन का धातकीखण्ड, उसके दोनों ओर सोलह लाख योजन का कालोदधि तथा उसके दोनों
ओर सोलह लाख योजन का अर्धपुष्कर द्वीप । इस प्रकार १+४+८+१६+१६ लाख योजन, इनका कुल परिमाण पैंतालीस लाख योजन होता है। यह पैंतालीस लाख योजन का क्षेत्र समयक्षेत्र है । सूर्य और चन्द्रमा की गति इसी क्षेत्र में है। उससे आगे जो सूर्य-चन्द्रमा हैं, वे स्थिर हैं। इस दृष्टि से यह कहा गया है कि काल समयक्षेत्रवर्ती है। यह कथन सूर्य-चन्द्रमा की गति पर निर्भर व्यावहारिक काल की अपेक्षा से है। नैश्चयिक काल तो सर्वत्र होता ही है।
धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य काल की अपेक्षा अनादि अनन्त हैं । ये अतीत में थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में रहेंगे। ऐसा कोई भी क्षण नहीं था या होगा, जिसमें छहों द्रव्यों का अस्तित्व न हो।
भाव का अर्थ है स्वरूप । धर्मास्तिकाय आदि पांच द्रव्य अमूर्त हैं । इसलिए ये भाव की अपेक्षा से अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श हैं।
पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सभी होते हैं। __गुण द्रव्य का सदा साथ रहने वाला धर्म है । गुण की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का गुण क्रमशः गमन गुण और स्थान गुण है । संसार के जीव, अजीव सभी पदार्थ इन गुणों के कारण ही गति और स्थिति करते हैं । आकाशास्तिकाय अवगाहन गुण वाला द्रव्य है। काल का गुण है वर्तन और पुद्गलास्तिकाय का गुण है ग्रहण। किसी दूसरे तत्त्व को मिलाने या छोड़ने का काम पुद्गल ही कर सकता
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जीव का गुण है उपयोग । उपयोग चेतना का व्यापार है। उपयोग का अर्थ है जानना और देखना । यह गुण छह द्रव्यों में एक जीव द्रव्य में ही मिलता है।
ऊपर उल्लिखित छहों द्रव्य जहां हों, वह लोक कहलाता है।
५. गुण के दो प्रकार हैं१. सामान्यगुण-अस्तित्व, द्रव्यत्व आदि
२. विशेषगुण-चेतनत्व, मूर्तत्व आदि तीसरे बोल में द्रव्य के प्रकार बतलाए गए। इस बोल में गुण के प्रकार उल्लिखित हैं । उत्तराध्ययन सूत्र में द्रव्य की व्याख्या में लिखा है—'गुणाणमासओ दव्वं' । गुणों का आश्रय द्रव्य है । जैन सिद्धान्तदीपिका में इस सन्दर्भ को विश्लेषित
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