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१४६ / जैनतत्त्वविद्या करते हुए लिखा गया है-'गुणपर्यायाश्रयो द्रव्यम्'-जो गुण और पर्याय का आधार है, वह द्रव्य है । एक ओर गुणों का आश्रय द्रव्य तथा दूसरी ओर गुण और पर्यायों का आश्रय द्रव्य । पढ़ने में विसंगति-सी प्रतीत होती है। पर यह विसंगति नहीं, वक्ता की विवक्षा है।
गुण पदार्थ का धर्म है । वह दो प्रकार का होता है-सहभावी और क्रमभावी । सहभावी धर्म गुण है और क्रमभावी धर्म पर्याय है। जहां केवल गुणों के आधार को द्रव्य बतलाया गया है, वहां सहभावी धर्म मात्र की विवक्षा है । पर्याय की स्वतन्त्र विवक्षा नहीं है। और जहां गुण तथा पर्याय दोनों के आधार को द्रव्य कहा गया है, वहां सहभावी और क्रमभावी दोनों धर्मों की विवक्षा है । इस बोल में गुण का विवेचन किया गया है।
गुण के दो प्रकार हैं--सामान्य और विशेष । सब द्रव्यों में समान रूप से पाया जाने वाला गुण सामान्य गुण है। इसके छह प्रकार हैं
अस्तित्व- द्रव्य का वह गुण, जिसके कारण उसका कभी विनाश न हो। वस्तुत्व- द्रव्य का वह गुण, जिसके कारण वह कोई न कोई अर्थक्रिया
अवश्य करे। द्रव्यत्व- द्रव्य का वह गुण, जो परिवर्तनशील पर्यायों का आधार है। प्रमेयत्व- वस्तु का वह गुण, जो ज्ञान का विषय बनता है। प्रदेशवत्व- द्रव्य का वह गुण, जिसके कारण वह अपने स्वरूप में स्थिर
रहता है। अगुरुलधुत्व- द्रव्य का वह गुण, जिसके कारण वह अपने स्वरूप में स्थित
रहता है। विश्व का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें उपर्युक्त ये छह गुण समान रूप से नहीं पाए जाते हों। सबमें समान रूप से होने के कारण ही इन्हें सामान्य गुण माना गया है।
जो गुण सब द्रव्यों में न मिले, वह विशेष गुण है। विशेष गुण हर पदार्थ का अपना होता है। उसका किसी दूसरे पदार्थ में संक्रमण नहीं होता। उसके सोलह प्रकार हैं
१. गतिहेतुत्व ४. वर्तनाहेतुत्व ७. गन्ध २. स्थितिहेतुत्व ५. स्पर्श ८. वर्ण ३. अवगाहहेतुत्व ६. रस ९. ज्ञान
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