________________
१४४ / जैनतत्त्वविद्या पुद्गलास्तिकाय
द्रव्य से अनन्त द्रव्य, क्षेत्र से लोकपरिमाण, काल से अनादि-अनन्त, भाव से मूर्त, गुण से ग्रहण गुण। जीवास्तिकाय
द्रव्य से अनन्त द्रव्य, क्षेत्र से लोकपरिमाण, काल से अनादि-अनन्त, भाव से अमूर्त, गुण से उपयोग गुण।
किसी भी तत्त्व को सरलता से समझाने के लिए सामान्यतः वस्तुबोध की चार दृष्टियां काम में ली जाती हैं। इन दृष्टियों से उस तत्त्व को कसा जाता है, तोला जाता है। इस क्रम से वह तत्त्व सुगम और सुबोध हो जाता है। इस वर्ग के दूसरे बोल में उन दृष्टियों को कई उदाहरणों से समझाया गया है । इस बोल में धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्यों को समझाने के लिए पांच दृष्टियों-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण का उपयोग किया गया है। वैसे गुण भाव का ही अंग है। पर यहां अधिक स्पष्टता के लिए पृथक् दृष्टि के रूप में उसका ग्रहण किया गया है।
पहली दृष्टि है द्रव्य । धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य, द्रव्य की दृष्टि से अपनेअपने नाम से पहचाने जाते हैं। क्षेत्र की दृष्टि से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय लोकव्यापी हैं। आकाशास्तिकाय लोक- अलोक-दोनों में व्याप्त है । काल समयक्षेत्रवर्ती है।
जंबूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्धपुष्कर-ये ढाई द्वीप तथा लवण समुद्र और कालोदधि—ये दो समुद्र 'समयक्षेत्र' की सीमा में आते हैं। इसे 'मनुष्यक्षेत्र' भी कहते हैं । जैन आगमों के अनुसार यह ४५ लाख योजन विस्तार वाला है। इसका क्षेत्रमान इस प्रकार माना गया है
मनुष्य क्षेत्र की पृथ्वी के मध्य में एक लाख योजन की ऊंचाई वाला मेरुपर्वत है। मेरुपर्वत के चारों ओर वलयाकार एक लाख योजन लंबा-चौड़ा जंबूद्वीप है।
जंबूद्वीप के चारों ओर वलयाकार दो लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है । लवण समुद्र के चारों ओर वलयाकार चार लाख योजन विस्तार वाला धातकीखण्ड है। धातकीखण्ड के चारों ओर आठ लाख योजन विस्तार वाला कालोदधि समुद्र है। समुद्र के चारों ओर वलयाकार सोलह लाख योजन विस्तार वाला पुष्कर द्वीप है। इस द्वीप के मध्य में वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है। इसके कारण पुष्कर द्वीप दो भागों में बंट जाता है । इस पर्वत के भीतरी भाग वाले आधे पुष्कर द्वीप में मनुष्य रहते हैं।
इस प्रकार एक लाख योजन का जंबूद्वीप, जंबूद्वीप के पूर्व से पश्चिम तक दोनों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org