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________________ वर्ग ३, बोल २४ / १३१ मुनि ही कर सकते हैं । अगार का अर्थ है घर । जो अगार यानी घर छोड़कर अनगार बन जाते हैं, उनके लिए पांच महाव्रत रूप धर्म का विधान है I महाव्रत भारतीय जीवन पद्धति में 'व्रत' का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जिस व्यक्ति के जीवन में व्रत होता है, वह धार्मिक कहलाता है । व्रत के अभाव में धार्मिकता के आगे एक प्रश्नचिह्न उपस्थित हो जाता है । जैन धर्म भारतीय धर्म और दर्शन के संदर्भ में एक प्रतिनिधि धर्म है । इसमें व्रत का सर्वाधिक मूल्य है। आचरण की क्षमता के आधार पर व्रत को दो भागों में विभक्त किया गया है— महाव्रत और अणुव्रत । जिस व्रत का पालन मन, वचन और काय से कृत, कारित और अनुमति - वर्जन के साथ होता है, वह महाव्रत कहलाता है। जिस व्रत की अनुपालना में उपर्युक्त त्रिकरण, त्रियोग का अनुबन्ध न हो, जिस व्रत की कुछ सीमाएं हों, वह अणुव्रत कहलाता है । महाव्रत का पालन करने वाला साधु कहलाता है । महाव्रत संख्या में पांच हैं पांच महाव्रतों में पहला महाव्रत है 'अहिंसा' । इसका दूसरा नाम है प्राणातिपात विरमण । सब प्रकार की हिंसा से विरत होना अहिंसा महाव्रत है । इस परिभाषा में हिंसा का संबंध प्राण- वियोजन से रखा गया है। थोड़ी गहराई से चिन्तन किया जाए तो हिंसा का संबंध है व्यक्ति के असंयम से । संत प्रवृत्ति से यदि किसी जीव का वध भी हो जाए तो उसे वास्तव में हिंसा नहीं माना जाता । प्रवृत्ति संयत नहीं है तो प्राणी का वध न होने पर भी हिंसा है । इस दृष्टि से अहिंसा की परिभाषा है- 'सर्वभूतेषु संयमः अहिंसा' - 'प्राणी मात्र के प्रति व्यक्ति का अपना संयम है, वह अहिंसा है । ' सत्य एक मानवीय गुण है। इससे विमुख होने अर्थात् असत्य- संभाषण के चार कारण हैं— क्रोध, लोभ, भय और हास्य । इन चारों कारणों से बचने वाला असत्य भाषण से अपने आप बच जाता है । यह सत्य का नकारात्मक पक्ष है । विधेयक दृष्टि से विचार किया जाए तो सत्य के चार रूप हैं- शरीर की सरलता, मन की सरलता, वचन की सरलता और कथनी-करनी की अविसंवादिता (समानता) । सत्य महाव्रत का आचरण इसी भूमिका पर हो सकता है । चोरी एक सामाजिक और राष्ट्रीय अपराध है । इस अपराध से बचने वाला किसी प्रकार की अदत्त वस्तु, फिर चाहे वह एक तिनका ही क्यों न हो, का ग्रहण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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