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१३० / जैनतत्त्वविद्या है। ध्यान, स्वाध्याय, तपस्या, पदयात्रा, केशलुंचन आदि सभी प्रवृत्तियों का समावेश निर्जरा धर्म में हो जाता है। फिर भी वह गौण तत्त्व है। प्रमुख तत्त्व है संवर । संवर-संवलित निर्जरा ही व्यक्ति को सिद्ध, बुद्ध या मुक्त बना सकती है।
निर्जरा धर्म संसार के सब जीवों के हो सकता है। क्योंकि यह एक व्यापक तत्त्व है। अभव्य और मिथ्यात्वी व्यक्ति भी निर्जरा धर्म की साधना कर सकते हैं। किन्तु संवर धर्म की साधना सबके वश की बात नहीं है । आत्म-विकास की चौदह भूमिकाओं में पांचवीं भूमिका में संवर धर्म का स्पर्श होता है। उसके बाद वह उत्तरोत्तर विकसित होता हुआ व्यक्ति को पूर्णता तक पहुंचा देता है।
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२४. धर्म के दो प्रकार हैं१. अनगार धर्म २. अगार धर्म अनगार धर्म (मुनि धर्म) के पांच प्रकार हैं
१. अहिंसा महाव्रत ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत २. सत्य महाव्रत ५. अपरिग्रह महाव्रत
३. अचौर्य महाव्रत अगार धर्म (श्रावक धर्म) के बारह प्रकार हैं
(पांच अणुव्रत) १. अहिंसा अणुव्रत ४. ब्रह्मचर्य अणुव्रत २. सत्य अणुव्रत ५. अपरिग्रह अणुव्रत ३. अचौर्य अणुव्रत
(सात शिक्षाव्रत) १. दिग्परिमाण व्रत ५. देशावकाशिक व्रत २. भोगोपभोगपरिमाण व्रत ६. पौषधोपवास व्रत ३. अनर्थदण्डविरमण व्रत ७. यथासंविभाग व्रत
४. सामायिक व्रत तेईसवें बोल में लौकिक और लोकोत्तर धर्म की चर्चा की गई। वहां लोकोत्तर धर्म में श्रुत, चारित्र तथा संवर, निर्जरा का उल्लेख है। प्रस्तुत बोल में क्षमता के आधार पर धर्म को दो वर्गों में बांटा गया है। अनगार धर्म का पालन गृहत्यागी
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