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________________ वर्ग ३, बोल २३ / १२९ के दो रूप-लौकिक धर्म और लोकोत्तर धर्म को आधार मानकर चर्चा की गई है। लौकिक धर्म के अनेक प्रकार हैं। देश, काल और परिस्थिति के अनुसार धर्म के स्वरूप और प्रकारों में परिवर्तन होता रहता है। किसी भी राष्ट्र या समाज की जितनी परम्पराएं, जितने रीतिरिवाज, जितने व्यवहार हैं, वे सब लौकिक धर्म के अन्तर्गत आते हैं। लोकोत्तर धर्म का अर्थ है-संसार की रूढ़ धारणाओं, परम्पराओं और अन्धविश्वासों से मुक्त एक ऐसी प्रक्रिया, जिससे व्यक्ति सत्य के निकट पहुंचता है, अपनी आत्मा की पहचान करता है और बंधन-मुक्ति की दिशा में प्रस्थित होता है। प्रस्तुत बोल में लोकोत्तर धर्म के दो-दो प्रकार बतलाए गए हैं। धर्म है आत्मशुद्धि के लिए किया जाने वाला पुरुषार्थ । शुद्ध उद्देश्य और शुद्ध साधन का जो फलित होता है, वही धर्म हो सकता है। उद्देश्य सही है, पर साधन शुद्ध नहीं है तो उस प्रवृत्ति के आगे प्रश्नचिह्न लग जाता है। इस दृष्टि से यहां श्रुत शब्द से ज्ञान और दर्शन दोनों का ग्रहण होता है। क्योंकि श्रद्धा के बिना ज्ञान का विकास भी संभव नहीं है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक को विशिष्ट ज्ञानी माना जाता है । एक वैज्ञानिक जितना श्रद्धालु होता है, कुछ धार्मिक व्यक्ति भी शायद उतने श्रद्धाशील नहीं होते। श्रद्धा के अभाव में किसी एक प्रवृत्ति में जीवन खपाने का मनोभाव बन ही नहीं सकता। इस दृष्टि से श्रद्धा को धर्म का प्रथम द्वार माना जा सकता है। श्रद्धा और ज्ञान की उपलब्धि होने पर भी जब तक चारित्र धर्म का विकास नहीं होता, धर्म का रूप सामने नहीं आता। चारित्र का संबंध आचरण से है । जीवन शुद्धिमूलक जितना आचरण है, वह सब धर्म है। इसमें व्रत, नियम, त्याग, तप, अनुष्ठान आदि बाह्य क्रियाओं के साथ समता, सहिष्णुता आदि आन्तरिक गुणों का समावेश हो जाता है। संवर और निर्जरा जैन साधना पद्धति के मूल आधार हैं। संवर का अर्थ है निरोध और निर्जरा का अर्थ है क्षरण । आत्मा और कर्म-पुद्गलों का संबंध अनादिकालीन है। क्षण-क्षण में कर्मों का बंधन, वेदन और क्षरण होता रहता है । जब तक आगन्तुक कर्मों को रोका नहीं जाएगा, तब तक जीव कर्म मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप को प्राप्त नहीं कर सकेगा। आगन्तुक कर्मों को रोकने का नाम ही संवर है। नए कर्मों का मार्ग अवरुद्ध हो जाने पर भी जब तक पूर्व संचित कर्म क्षीण नहीं होते, तब तक जीव का स्वरूप प्रकट नहीं हो सकता। इसलिए निर्जरा धर्म का भी बहुत महत्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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