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१२८ / जैनतत्त्वविद्या को यों भी कहा जा सकता है कि जिस काम को करने में अर्हत् की आज्ञा का उल्लंघन होता है, वह धर्म नहीं है। संयम धर्म है
इन्द्रियों, मन और वृत्तियों का जितना-जितना संयम साधा जाता है अथवा जितना व्रत होता है, वह धर्म है। असंयम या अव्रत धर्म नहीं है क्योंकि असंयम (अव्रत) के लिए भगवान की आज्ञा नहीं है। उपदेश धर्म है
धर्म का संबंध हृदय-परिवर्तन से है। जहां बलप्रयोग है, वहां धर्म नहीं हो सकता। उपदेश के द्वारा अथवा साधना के प्रयोगों द्वारा ग्रंथियों के स्राव बदलने से अन्तःकरण में होने वाला परिवर्तन धर्म की सही पहचान बन सकता है। जो अमूल्य है, वह धर्म है
धर्म अमूल्य तत्त्व है। उसे कभी अर्थ या किसी अन्य साधन से खरीदा नहीं जा सकता, जो खरीदा जाता है वह धर्म नहीं हो सकता।
निष्कर्ष की भाषा में इतना ही जानना जरूरी है कि त्याग, अनाज्ञा, असंयम, बलप्रयोग और मूल्य से प्राप्त होने वाला तत्त्व धर्म नहीं है। धर्म वही है, जिसमें अर्हत् की आज्ञा होती है। धर्म की यह व्याख्या मौलिक है और अनेक भ्रान्त धारणाओं को दूर करने वाली है।
२३. धर्म के दो प्रकार हैं
१. लौकिक धर्म २. लोकोत्तर धर्म लौकिक धर्म के अनेक प्रकार हैं
परम्परा, रीतिरिवाज आदि। लोकोत्तर धर्म के दो प्रकार हैं
___ १. श्रुत धर्म २. चारित्र धर्म
अथवा
१. संवर धर्म २. निर्जरा धर्म धर्म शब्द अनेक अर्थों का वाचक है । जिस प्रसंग में जो अर्थ विवक्षित होता है, उसे प्रमुख मानकर अन्य अर्थों को गौण कर दिया जाता है । तेईसवें बोल में धर्म
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