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वर्ग ३, बोल २२ । १२७
शुक्लध्यान . शुक्लध्यान का अर्थ है परिपूर्ण समाधि । यह चिन्तन की निर्मलता का प्रकृष्ट रूप है। इससे अन्तर्मुखता की अग्रिम भूमिकाएं प्रशस्त हो जाती हैं। इस स्थिति में भौतिक आकांक्षाएं छूटती हैं और आत्मिक अनुभूति के द्वार खुलते हैं। शुक्लध्यान की चार अवस्थाएं हैं। चौथी अवस्था में पहुंचने के बाद जीव सांसारिक बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
२२. धर्म की पहचान के पांच प्रकार हैं१. त्याग धर्म है, भोग धर्म नहीं है। २. आज्ञा धर्म है, अनाज्ञा धर्म नहीं है। ३. संयम धर्म है, असंयम धर्म नहीं है। ४. उपदेश धर्म है, बलप्रयोग धर्म नहीं है।
५. अनमोल धर्म है, मूल्य से प्राप्त होने वाला धर्म नहीं है। धर्म मनुष्य की आस्था का विशिष्ट केन्द्र है ।इसके आधार पर जीवन चलता है और कठिन समय में आलम्बन मिलता है। धर्म क्या है? इस प्रश्न को कई दृष्टियों से देखा गया है और हर दृष्टि की पृष्ठभूमि में रही हुई विवक्षा के आधार पर उसकी पहचान कराई गई है । आचार, व्यवस्था, परम्परा, रीतिरिवाज आदि अनेक अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग और उसकी व्याख्या की गई है। इस बोल में केवल शुद्ध आध्यात्मिक धर्म को सामने रखकर चिन्तन किया गया है। आध्यात्मिक धर्म, जो कि एकमात्र आत्मशुद्धि का साधन है, लोक धर्म से भिन्न है । आचार्य भिक्षु ने उसको जो सीधी-सपाट किन्तु सार्थक परिभाषाएं दी हैं, वे जितनी यथार्थ हैं, उतनी ही सरल हैं। धर्म को दार्शनिक गुत्थियों में सुलझाने के स्थान पर इतनी सीधी अभिव्यक्ति देना आचार्य भिक्षु की सूक्ष्मग्राही मेधा का प्रतीक है।
प्रस्तुत बोल में लोकोत्तर धर्म की पहचान के पांच लक्षण बतलाए गए हैंत्याग धर्म है
सपाप आचरणों का त्याग धर्म है । भोग के साथ धर्म का कोई अनुबन्ध नहीं है। त्याग अर्हत् की आज्ञा में है, इसलिए वही धर्म है। आज्ञा धर्म है
जिस आचरण की अर्हत्, तीर्थंकर, वीतराग आज्ञा देते हैं, वह आचरण धर्म है। जिस आचरण के लिए भगवान की आज्ञा नहीं है, वह धर्म नहीं है। इस बात
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