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________________ १३२ / जैनतत्त्वविद्या नहीं करता। सकारात्मक भाषा में कहा जाए तो पूर्ण प्रामाणिकता का नाम अचौर्य महाव्रत है। ब्रह्मचर्य जीवन का विशेष गुण है । गृहस्थ जीवन में इसकी कुछ सीमाएं हैं। विवाह संस्कार इन सीमाओं की ही एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अनुसार विवाहित स्त्री-पुरुष के अतिरिक्ति सभी स्त्री-पुरुषों के साथ संभोग का वर्जन करना जरूरी है। यह अणवत है। ब्रह्मचर्य महाव्रत में विवाह का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता। इसलिए वहां सम्पूर्ण रूप से संभोग का वर्जन विहित है। गहराई से विचार किया जाए तो पांचों इन्द्रियों और मन को विषयासक्ति से सर्वथा निवृत्त रखना ब्रह्मचर्य है। श्रुति-संयम, स्मृति-संयम, खाद्य-संयम, कल्पना-संयम आदि विषयासक्ति वर्जन के ही फलित हैं। अथवा यों भी कहा जा सकता है कि श्रुति, स्मृति आदि का संयम करने से विषयासक्ति स्वयं छूट जाती है। ____ परिग्रह के दो रूप हैं-वस्तुसंग्रह और मूर्छा । संग्रह और मूर्छा का अभाव अपरिग्रह महाव्रत है। मुनि के लिए धोंपकरण के अतिरिक्त वस्तु मात्र का संग्रह सर्वथा वर्जित है। मूर्छा का जहां तक प्रश्न है, वह न धर्मोपकरण के प्रति होनी चाहिए और न किसी अन्य वस्तु पर । शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है-'अवि अप्पणो वि देहम्मि नायरति ममाइयं'-मुनि अपने शरीर पर भी ममत्व न करे। अपरिग्रह महाव्रत की पूर्णता इसी में है। ये पांचों महाव्रत मुनि के लिए अनिवार्य रूप से समाचरणीय हैं। जो व्यक्ति मुनि नहीं बन सकते, महाव्रतों का पालन नहीं कर सकते, उनके लिए अगार धर्म अर्थात् श्रावक धर्म का रास्ता खुला है । श्रावक धर्म के बारह प्रकार हैं। उनको दो या तीन वर्गों में बांटा जा सकता है। प्रथम वर्गीकरण में पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत तथा दूसरे वर्गीकरण में पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत हैं । वर्गीकरण का कोई भी क्रम हो; मूल बात इतनी ही है कि अगार धर्म के बारह प्रकार हैं। अणुव्रत जैन दर्शन के अनुसार मुनि की तरह गृहस्थ भी धर्म की आराधना कर सकता है। उसकी आराधना आंशिक होती है और मुनि की पूर्ण । इसलिए मुनि के द्वारा स्वीकृत संकल्प महाव्रत कहलाते हैं और गृहस्थ के द्वारा स्वीकृत संकल्प अणुव्रत । महाव्रत की भांति अणुव्रत भी पांच हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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