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________________ १२४ / नतत्वविद्या प्राणी होता है। जब तक शरीर है, तब तक प्रवृत्ति होती रहती है। जहां प्रवृत्ति है, क्या वहां हिंसा, असत्य आदि से बचना संभव है? यदि संभव नहीं तो फिर चारित्र की अनुपालना या साधुत्व की कल्पना कहां तक सार्थक है? इस प्रश्न के समाधान में तीर्थंकरों ने चारित्र के साथ समिति और गुप्ति की अनुपालना का निर्देश दिया है। समिति और गुप्ति से संवलित प्रवृत्ति में हिंसा नहीं होती। इसलिए सहायक सामग्री के रूप में समिति और गुप्ति की आराधना को भी आवश्यक माना गया है। उन्नीसवें बोल में इन्हीं का उल्लेख है। समिति का अर्थ है संयत प्रवृत्ति, संयममय प्रवृत्ति । वे पांच हैं• ईर्या समिति-संयम पूर्वक चलना • भाषा समिति-संयम से बोलना एषणा समिति संयमी शरीर के निर्वाह हेतु भोजन, पानी आदि की संयमपूर्वक एषणा। आदाननिक्षेप समिति-धर्मोपकरणों का संयमपूर्वक उपयोग। • उत्सर्ग समिति—मल-मूत्र आदि का विधिवत् विसर्जन । इन पांचों समितियों से महावतों की अनुपालना सहज हो जाती है। इसलिए महाव्रत के साथ समिति का योग किया गया है। जहां समिति है, वहां गुप्ति का होना जरूरी है। गुप्ति के साथ समिति हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती। किंतु समिति, गुप्ति के बिना नहीं होती। इस दष्टि से तीन गुप्तियां बताई गयी हैं। मनोगुप्ति मन का सर्वथा निग्रह अथवा मन की असंयत प्रवृत्ति का निग्रह मनोगुप्ति है। मन का पूरा निग्रह अयोग संवर की स्थिति में होता है। आंशिक निग्रह अयोग संवर का अंश है। असंयत प्रवृत्ति का निग्रह व्रत संवर में परिगणित होता है। किंतु संयत प्रवृत्ति का निग्रह अयोग संवर का अंश बन जाता है। वाक्गुप्ति वचन का सर्वथा निग्रह अथवा वाणी का निग्रह । कायगुप्ति __ शरीर की स्थूल और सूक्ष्म सब प्रवृत्तियों और परिस्पन्दनों का निग्रह अथवा शरीर की सपाप प्रवृत्ति का निग्रह । चारित्र धर्म या पांच महाव्रत के साथ पांच समिति और तीन गुप्ति का योग करने से यह संख्या तेरह हो जाती है। आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की परिभाषा देते हुए इसका प्रयोग किया है। उन्होंने कहा—'हे प्रभो ! यह तेरापंथ' यह व्याख्या हमें इष्ट है। इसके साथ-साथ उपर्युक्त तेरह नियम भी तेरापंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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