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वर्ग ३, बोल २० / १२५
की एक व्याख्या है । इन तेरह नियमों का पालन करने वाला तेरापंथी साधु कहलाता है । जहां महाव्रतों का पालन जरूरी है, वहां अनुशासन स्वतः प्राप्त है । जिस व्यक्ति पर अपना अनुशासन नहीं होता, संघ का अनुशासन नहीं होता, वह महाव्रत और समिति - गुप्ति का भी पालन नहीं कर सकता ।
२०. स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं
४. अनुप्रेक्षा
५. धर्मकथा
१. वाचना
२. प्रच्छना
३. परिवर्तना
स्वाध्याय का अर्थ है श्रुत - अध्यात्मशास्त्र का अध्ययन । स्वाध्याय के पांच प्रकार हैं। पांच प्रकारों में पहला प्रकार है वाचना । वाचना का संबंध अध्ययन और अध्यापन के साथ है । अध्ययन-अध्यापन का माध्यम ग्रन्थ भी हो सकते हैं और आत्मज्ञान भी । मूल बात इतनी ही है कि वही अध्ययन स्वाध्याय का अंग बनता है, जो व्यक्ति को आत्मविश्लेषण करवा सके, पहचान दे सके ।
प्रच्छना का अर्थ है पूछना । इसकी पृष्ठभूमि में जिज्ञासा का होना जरूरी है। जिज्ञासु भाव से उपजे हुए प्रश्न ही व्यक्ति को सत्य तक ले जा सकते हैं। जिज्ञासु को सत्य की राह पकड़ा सकें, वे प्रश्न ही स्वाध्याय के परिवार में सम्मिलित होने की अर्हता रखते हैं ।
परिवर्तना का अर्थ है दोहराना, एक ही पथ से बार-बार गुजरना । ज्ञान चेतना के विकास में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है । इस उपक्रम का उपयोग नहीं करने वाले अपने कृत पुरुषार्थ को भी विफल कर लेते हैं ।
अनुप्रेक्षा का संबंध ध्यान और स्वाध्याय दोनों के साथ है । यह चिन्तन की भूमिका है। जैन- परम्परा में इसके लिए भावना शब्द का प्रयोग भी होता है । अनित्य, अशरण आदि भावनाओं से भावित चित्त में जिस शान्ति और समाधि का अवतरण होता है, वह स्वाध्याय की महत्ता का प्रतीक है ।
धर्मकथा सब प्रकार की धर्म चर्चा और धर्मोपदेश की सूचना देने वाला शब्द है। धर्मोपदेशक प्रवचन में केवल इधर-उधर की बातें कहकर अपने कर्त्तव्य को पूरा नहीं कर सकता । गम्भीर स्वाध्याय और मनन के बाद ही वह श्रोताओं का पथदर्शन कर सकता है । इस दृष्टि से स्वाध्याय के पांचों प्रकार साधना में सहायक सिद्ध होते
हैं।
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