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१२२ / जैनतत्त्वविद्या
१८. दर्शन के आठ आचार हैं
१. निःशंकिता
२. निष्कांक्षिता
५. उपबृंहण ६. स्थिरीकरण
७. वात्सल्य
३. निर्विचिकित्सा ४. अमूढदृष्टि
८. प्रभावना
सत्य की आस्था या सत्य के प्रति होने वाली रुचि की पहचान सम्यग् दर्शन के रूप में होती है । सम्यग्दर्शन को निर्मलतम बनाए रखने के लिए आठ प्रकार के आचार का निरूपण किया गया है।
निःशंकिता
शंका का अर्थ है सन्देह और भय । जिनभाषित तत्त्व के प्रति सन्देह अथवा इहलोकभय, परलोकभय आदि सात प्रकार के भय से होने वाली व्यथा का नाम शंका है। शंका का अभाव निःशंकिता है। इससे सत्य के प्रति निश्चित आस्था होती है । सम्यग्दृष्टि व्यक्ति असंदिग्ध और अभय होता है ।
निष्कांक्षिता
एकान्तवादी दर्शनों की इच्छा का नाम कांक्षा है। इसका दूसरा अर्थ है धर्माचरण द्वारा सुख-समृद्धि पाने की इच्छा। ऐसी इच्छा का उत्पन्न न होना निष्कांक्षिता है। इससे मिथ्या विचार के स्वीकार में अरुचि रहती है।
निर्विचिकित्सा
धर्म के फल में संदेह अथवा घृणा और जुगुप्सा का नाम विचिकित्सा है । यहां घृणा का सम्बन्ध धर्म के प्रति होने वाली ग्लानि से है । निर्विचिकित्सा से धर्म के फल में विश्वास जमता है ।
अमूढ़दृष्टि
मूढ़ता तीन प्रकार की होती है— लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और पाषण्डमूढ़ता। नदीस्नान आदि में धार्मिक विश्वास लोकमूढ़ता का प्रतीक है। रागद्वेष वाले देवों धार्मिक दृष्टि से इष्टबुद्धि देवमूढ़ता का प्रतीक है। हिंसा आदि में प्रवृत्त साधुओं गुरुत्व की बुद्धि पाषण्डमूढ़ता का प्रतीक है ।
में
एकान्तवादियों की विभूति देखकर मुग्ध होना, मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा करना, उनसे परिचय करना आदि सभी वृत्तियां मूढ़ता के अन्तर्गत हैं। इन सबसे दूर रहना अमष्टि का लक्षण है ।
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