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________________ विनय बहुमान - उपधान १७. ज्ञान का आठ आचार हैं५. अनिह्नवन ६. सूत्र ७. अर्थ ३. बहुमान ४. उपधान ८. सूत्रार्थ 1 1 ज्ञान का अर्थ है जानना । यह जीव और अजीव का विभाजक तत्त्व है संसार में छोटे-बड़े जितने जीव हैं, उनमें न्यूनतम ज्ञान की मात्रा अवश्य होती है जैन सिद्धान्त की भाषा में इसे क्षायोपशमिक ज्ञान कहा जाता है। यह न हो तो फिर जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं हो सकता । 1 सब जीवों का ज्ञान समान नहीं होता। कुछ जीवों में एक साथ तीन या चार ज्ञान हो सकते हैं । कम से कम दो ज्ञान या अज्ञान -मति और श्रुत हर संसारी प्राणी में होते हैं । केवलज्ञानी इसके अपवाद हैं । केवलज्ञान उपलब्ध हो जाने के बाद शेष चारों ज्ञान अकिंचित्कर हो जाते हैं । किंतु एक दृष्टि से देखा जाए तो उनका केवलज्ञान दूसरों के लिए उपयोगी तभी बनता है, जब वे श्रुत का सहारा लेते हैं । सूत्र के पाठ को उलट-पलटकर पढ़ना, सूत्र पाठ के साथ दूसरे पाठ जोड़कर पढ़ना, अक्षर छोड़कर पढ़ना, अक्षर बढ़ाकर पढ़ना आदि श्रुतज्ञान के चौदह अतिचार हैं । इन अतिचारों से बचने वाला और ज्ञान के आचार के प्रति जागरूक रहने वाला अपनी ज्ञान-सम्पदा की वृद्धि करता है। ज्ञान के आठ आचार बतलाए गए हैं—श्रुत का अध्ययन करने के लिए निर्दिष्ट काल में श्रुत का काल सूत्र - अर्थ सूत्रार्थ १. काल २. विनय Jain Education International करना । अनिह्नवनृ- ज्ञान और ज्ञानदाता आचार्य का गोपन न करना । अभ्यास करना । ज्ञान-प्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना । ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग रखना । श्रुतवाचन के समय आयम्बिल आदि विशेष तप का अनुष्ठान वर्ग ३, बोल १७ / १२१ सूत्र का वाचन करना । अर्थ का वाचन करना । सूत्र और अर्थ - दोनों का वाचन करना । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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