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१०२ / जैनतत्वविद्या
उपर्युक्त नौ तत्त्वों में जीव और अजीव मूल तत्त्व हैं। शेष सात तत्त्व जीव और अजीव की अवस्थाएं हैं। पुण्य, पाप और बन्ध पौगलिक तत्त्व हैं, इसलिए अजीव की अवस्थाएं हैं। आश्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष जीव की परिणतियां हैं, इसलिए जीव हैं।
२. जीव के चौदह प्रकार हैं
१. अपर्याप्त
३. अपर्याप्त
५. अपर्याप्त
सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद बार केन्द्रिय के दो भेद
द्वीन्द्रिय के दो भेद
७. अपर्याप्त
९. अपर्याप्त
त्रीन्द्रिय के दो भेद चतुरिन्द्रिय के दो भेद असंज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद - संज्ञी पंचेन्द्रिय के दो भेद
११. अपर्याप्त
१३. अपर्याप्त
प्रथम वर्ग में जीव के एक, दो, तीन से लेकर छह तक के प्रकारों को समझाया जा चुका है। तीसरे वर्ग में पुनः जीव के भेदों की चर्चा अप्रासंगिक नहीं, किन्तु आवश्यक है। यहां प्रथम बोल में नौ तत्त्वों का नामोल्लेख हुआ है। उन तत्त्वों को विस्तार से समझने के लिए प्रत्येक तत्त्व के कई-कई भेद बतलाये गये हैं । उसी श्रृंखला में जीव तत्त्व के चौदह भेद हैं । इन चौदह भेदों के वर्गीकरण का आधार है इन्द्रियां, मन और पर्याप्तियां । एकेन्द्रिय के दो भेद किए गए हैं— सूक्ष्म और बादर | पंचेन्द्रिय के भी दो भेद किए गए हैं-संज्ञी और असंज्ञी ।
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सूक्ष्म और बादर भेद की कल्पना केवल एक इन्द्रिय वाले जीवों को ध्यान में रखकर ही की गयी है। शेष सभी जीव बादर ही होते हैं । इसी प्रकार संज्ञी - असंज्ञी की कल्पना में पंचेन्द्रिय जीवों को केन्द्र में रखा गया है। शेष सभी जीव असंज्ञी होते हैं । सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। बादर जीव सूक्ष्म जीवों की तुलना में बहुत कम हैं
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सूक्ष्म - बादर, संज्ञी - असंज्ञी आदि सभी जीव अपने उत्पत्ति - स्थान पर उत्पन्न होते समय अपर्याप्त होते हैं । जीव को जितनी पर्याप्तियां प्राप्त करनी हैं, जब तक
२. पर्याप्त
४. पर्याप्त
६. पर्याप्त
८. पर्याप्त
१०. पर्याप्त
१२. पर्याप्त
१४. पर्याप्त
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