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________________ वर्ग ३, बोल ३ / १०३ उनका निर्माण नहीं होता है, तब तक वह अपर्याप्त कहलाता है। उन पर्याप्तियों का बन्ध काल पूरा होने से ही वह जीव पर्याप्त होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय—इस प्रकार सात विकल्पों के अपर्याप्त, पर्याप्त के भेद से चौदह भेद हो जाते हैं। ३. अजीव के चौदह प्रकार हैंधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं १. स्कन्ध २. देश ३. प्रदेश अधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं ४. स्कन्ध ५. देश ६. प्रदेश आकाशास्तिकाय के तीन भेद हैं ७. स्कन्ध ८. देश ९. प्रदेश काल का एक भेद है १०. काल पुद्गलास्तिकाय के चार भेद हैं ११. स्कन्ध १२. देश १३ प्रदेश १४. परमाणु अजीव जीव का प्रतिपक्षी तत्त्व है। इस अजीव तत्त्व से बंधे रहने के कारण ही जीव को संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए साधना की दृष्टि से जीव की तरह अजीव को भी समझना जरूरी है। अजीव के दो और पांच भेदों की चर्चा दूसरे वर्ग में की जा चुकी है । प्रस्तुत बोल में उन्हीं भेदों की विवक्षा से अजीव तत्त्व के चौदह भेद बतलाये गये हैं। मूलतः अजीव के पांच भेद हैं धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल और पुद्गलास्तिकाय । इनका विस्तार किया जाए तो भेदों की संख्या बढ़ सकती है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के तीन-तीन भेद हैं स्कन्ध, देश और प्रदेश । काल का कोई भेद नहीं होता। वह केवल काल तत्त्व ही है। पुद्गल के चार भेद हैं-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । स्कन्ध-अखण्ड वस्तु को अथवा परमाणुओं के एकीभाव को स्कंध कहा जाता है, जैसे-~-वस्त्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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