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________________ वर्ग:, बोल १ / ११ १. तत्त्व के नौ प्रकार हैं१. जीव ४. पाप ७. निर्जरा २. अजीव ५. आश्रव ८.बन्ध ३. पुण्य ६. संवर ९. मोक्ष विश्व में जितने दर्शन हैं, उन सबकी अलग परम्पराएं हैं, मान्यताएं हैं । तत्त्ववाद भी सबका अपना-अपना है। भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन की अपनी परम्परा है, अपना तत्त्ववाद है। तत्त्व का अर्थ है पारमार्थिक वस्तु या अस्तित्ववान् पदार्थ । मुख्य रूप से वे दो हैं-जीव और अजीव । संसार के दृश्य-अदृश्य सभी पदार्थ इन दो तत्त्वों में समाविष्ट हो जाते हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ बाकी नहीं बचता जो इनमें अन्तर्गर्भित न हो। जैनदर्शन में तत्त्व को विस्तार से समझाने के लिए दो पद्धतियां काम में ली गई हैं-जागतिक और आत्मिक । जहां जागतिक विवेचन की प्रमुखता है और आत्मिक तत्त्व-साधनापक्ष गौण है, वहां छह द्रव्यों की चर्चा है। जहां आत्मिक तत्त्व प्रमुख है और जगत्-रचना का पक्ष गौण है, वहां नौ तत्त्वों का विवेचन उपलब्ध होता है। मोक्ष साधना में उपयोगी ज्ञेय पदार्थ को तत्त्व कहा जाता है। वे संख्या में नौ हैं—जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष। जीव- जिसमें चेतना हो, सुख-दुःख का संवेदन हो, वह जीव है। अजीव-जिसमें चेतना न हो, वह अजीव है। पुण्य- शुभ रूप में उदय आने वाले कर्म-पुद्गल पुण्य हैं। पाप- अशुभ रूप में उदय आने वाले कर्म-पुद्गल पाप हैं। आश्रव-कर्म-पुद्गलों को ग्रहण करने वाली आत्मप्रवृत्ति आश्रव है। संवर- वह आत्मपरिणति, जिसमें आश्रव का निरोध होता है, संवर है। निर्जरा-तपस्या आदि के द्वारा कर्म-विलय होने से आत्मा की जो आंशिक उज्ज्वलता होती है, वह निर्जरा है। बन्ध- आत्मा के साथ बन्धे हुए कर्म-पुद्गलों का नाम बन्ध है। मोक्ष- कर्म-मुक्त आत्मा अथवा अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित आत्मा मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003129
Book TitleJain Tattvavidya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2008
Total Pages208
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, M000, & M015
File Size8 MB
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