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३८. शांति की खोज
अशांत मनुष्य शांति को खोज में निकला । राजनीति की मृगमरीचिका में प्रवेश किया। वहां उसे मिली-पद-लिप्सा, आत्म-प्रशंसा और पर-निंदा की चकाचौंध । आलोचना करना सहज हो गया। चुनाव में विश्सास देकर उसे निभाना मानो उसने सीखा ही न हो। दूसरों को गिराना उसके लिए 'आचारः प्रथमो धर्मः' बन गया । प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग करना जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया।
वह वहां से भागा । समाज-नीति में घुसा और देखा-सर्वत्र देखादेखी का छूत रोग व्याप्त है । श्रम की प्रतिष्ठा मिट गई है । लोग रूढिवाद की चक्की में पीसे जा रहे हैं। नैतिकता कोसों दूर चली गई है। बड़प्पन का मापदंड संयम नहीं, अर्थ बन गया है । बड़प्पन की भूख सबमें प्रबल है ।
वह वहां से भी मुड़ा। धर्मनीति में घुसकर खुली आंखों से निहारा तो पाया कि धर्म ने आडम्बर का चोगा पहन रखा है। धर्म की ओट में स्वार्थ साधा जा रहा है । भगवान सोने से ढका हुआ है । ज्ञान सोने से मढा हुआ है । उपासना का केन्द्र वासना का केन्द्र बना हुआ है। धर्म सम्प्रदाय की चहारदीवारी में बन्दी बना हुआ है।
वह दिग्-भ्रांत हो गया। आगे चला। चलता चला। एक ओर प्रकाश की किरण फूटी। वह मुड़ा। व्रतों के वातावरण में पहुंच उसने देखाशांति का मार्ग संयम है, आत्म-नियन्त्रण है, अपने द्वारा अपना अनुशासन है । यही धर्म का विशुद्ध रूप है । ऐसा धर्म सम्प्रदायवाद से परे है। जाति, रंग और लिंग के बन्धनों से मुक्त है। राजनीति के रंगमंच से दूर है। मनुष्य जिसके लिए चला था, वह मिल गया। उसकी खोज पूर्ण हो गई। उसका पुरुषार्थ सार्थक हो गया ।
शांति की खोज
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