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________________ एक तरफ । दोनों की तुलना में पलड़ा भारी रहेगा, अठारहवें पाप का । मिथ्यादर्शनशल्य सबसे बड़ा पाप है । भयंकर पाप है, मिथ्यादर्शनशल्य अर्थात् विपरीत श्रद्धा, मिथ्यात्व, संदेह, अनास्था, दृष्टि विपर्यय । चश्मा पीला है । दुनिया की समग्र सफेद वस्तुएं पीली नजर आएंगी। श्रद्धा के अभाव में बड़े-से-बड़ा, अच्छे-से-अच्छा तत्त्व भी निकम्मा ठहरेगा । मनुष्य बुराई करता है, यह उसकी कमजोरी है । पर बुराई को अच्छा मानना, उसका प्रचार करना तो बहुत बुरा है, बल्कि सर्वाधिक बुरा है । क्यों ? इसलिए कि बुराई को अच्छा मानकर चलने वाला उसे छोड़ नहीं सकता। इसके विपरीत व्यक्ति बुराई करता है, किन्तु उसे बुरा मानता है, तो शायद एक दिन ऐसा आयेगा, उसे बुराई से घृणा हो जाएगी और वह उसे छोड़ देगा । पर बुरे को अच्छा मानकर चलने वाला उसे छोड़ेगा भी क्यों । इसलिए मिथ्यात्व सब पापों की जड़ है, नींव है और मूलभूत कारण है । आज लोगों की यह जो मिथ्या आस्था बन रही है कि सत्य से काम नहीं चल सकता, एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है नादसिणस्स नाणं, नाणेण विणा न हंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ अर्थात् बिना सम्यक् दर्शन (श्रद्धा) ज्ञान नहीं होता, बिना सम्यक् ज्ञान के चरित्र गुण नहीं होता, बिना चरित्र के जीव मुक्त नहीं होता और बिना बन्धन - मुक्ति के निर्वाण नहीं होता । नास्तिक कौन ? सम्यक् दर्शन सब गुणों का मूल है । और इसके विपरीत मिथ्यादर्शन सब अवगुणों का बीज है । कहा गया- 'नास्तिको वेदनिदक: ।' परन्तु मैं तो कहूंगा, नास्तिक वह है, जो यह कहे कि सत्य से काम ही नहीं चलता, बल्कि इससे भी आगे यह कहना चाहूंगा कि जो श्रद्धाविहीन होकर चलता है, वह महानास्तिक है । आज के लोगों का दृष्टिकोण विपरीत है । जहां वह त्यागप्रधान होना चाहिए था, वहां वह भोग-प्रधान है । ऐसी स्थिति में ऐसे आन्दोलनों को बल देना अत्यन्त आवश्यक है, जो मनुष्य के दृष्टिविपर्यास को मिटाकर उसे सम्यक् दृष्टि प्रदान करें । असदाचार से एकत्रित की गई सम्पत्ति के उपयोगी धनवान् से क्या वह दरिद्री कहीं अच्छा नहीं है, जो कम-से-कम आवश्यकता रखता है, कमसे-कम संग्रह करता है । अरे ! उस सहज दुबले-पतले आदमी से क्या वह स्थूलकाय आदमी अच्छा है, जो रोग के कारण मोटा बना है । उसे देख यदि कोई ऐसा समझे कि यह कितना मोटा ताजा, कितना हृष्ट-पुष्ट है, तो मिथ्या दृष्टिकोण: सबसे बड़ा पाप ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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