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३६. शिक्षा क्यों ?
शिक्षा और जीवन-निर्माण
____ मैं देख रहा हूं, आज चारों ओर शिक्षा के विकास की चर्चा हैं । मैं शिक्षा का विरोधी नहीं, पर सार्थकता उसी शिक्षा की मानता हूं, जो जीवननिर्माण करने में सक्षम हो। जो शिक्षा जीवन का सही निर्माण न कर सके, ऐसी शिक्षा की कोई विशेष उपयोगिता मैं नहीं देखता, बल्कि कहना चाहिए कि वह मात्र भार है । प्रशा होगा. जीवन-निर्माण से क्या तात्पर्य है ? हमारे यहां कहा गया--
शांतं तुष्टं पवित्रं च, सानन्दमिति तत्त्वतः ।
नीवनं जीवनं प्राहुः, भारतीयसुसंस्कृतौ ।। भारतीय संस्कृति में उसी जीवन को वास्तव में जीवन माना है, जो शांति, तुष्टि, पवित्रता एवं आनन्द से युक्त है। जिस जीवन में इन चारों तत्त्वों का अभाव है, वह कहने भर का जीवन है, वास्तविक जीवन नहीं । शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य सही जीवन का निर्माण करना है। जो शिक्षा या विद्या शांति, तुष्टि, पवित्रता एवं आनन्द-इन चारों तत्त्वों का जीवन में संचार नहीं करती, वह वास्तव में शिक्षा नहीं, अशिक्षा है, विद्या नहीं अविद्या है । पर मुझे लगता है कि बहुलांश में लोगों के सामने शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य की स्पष्टता नहीं है । और तो क्या, विद्यार्थी स्वयं भी शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को नहीं समझ पा रहे हैं। अन्यथा वे पेट भरने के लिए नहीं पढते, ऐशो-आराम के लिए नहीं पढते । अरे ! पेट तो पशु-पक्षी और कोड़े-मकोड़े भी भरते हैं । इसमें मानव की क्या विशेषता। ऐशो-आराम विलास बढाता है। वह न स्वयं के लिए लाभदायक है और न औरों के लिए ही।
चलते सब हैं, पर सच्चा चलना उन्हीं का है, जो दूसरों के लिये पगडंडी बन जाये । बोलते सब हैं, पर बोलना उन्हीं का है, जिससे दूसरे प्रेरणा पायें । विद्या से यदि ऐसा होता है, तभी वह विद्या है। कभी-कभी जीवन की छोटी-सी घटना भी, छोटी-सी वाणी भी दूसरों के लिये बड़ी प्रेरणा का स्रोत बन जाती है। इसके लिये यह आवश्यक नहीं कि उसे करनेवाला/कहनेवाला कोई बहुत पढ़ा-लिखा हो। कभी-कभी अनपढ व्यक्ति
शिक्षा क्यों ?
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