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________________ ३५. बन्धन और मोक्ष शास्त्रों में कहा गया है अस्थि बंधे व मोक्खे वा इति सन्ना निवेसए । नत्थि बंधे व मोक्खे वा इति सत्ना न निवेसए । अत्थि पुण्णे व पापे वा इति सन्ना निवेसए । नत्थि पुण्णे व पापे वा इति सन्ना न निवेसए । यह श्रद्धा/विश्वास करो कि बन्धन भी है, मोक्ष भी है। यह श्रद्धा विश्वास मत करो कि बन्धन नहीं है, मोक्ष नहीं है। जहां बन्धन है, वहां मुक्ति तो होगी ही। इसी प्रकार जहां मुक्ति है, वहां बंधन का अस्तित्व तो स्वयं ही हो गया । तात्पर्य यह कि दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं हो सकते । हां, यहां पर जो बन्धन बताया गया है, वह द्वयगुणक, त्रयगुणक आदि पौद्गलिक बन्धन की दृष्टि से नहीं है । बन्धन यानी दो चीजों का विशिष्ट संयोग---आत्मा के साथ होने वाला विजातीय पदार्थों का बन्धन । आत्मा पर बन्धन भी है और उसकी मुक्ति भी है। अभव्य की मुक्ति ? यहां प्रश्न हो सकता है कि यदि बन्धन और मुक्ति दोनों साथ रहें तो क्या अभव्य आत्मा की भी मुक्ति होती है ? इसका उत्तर है- हां एक अपेक्षा से अभव्य की भी मुक्ति मानी जा सकती है। यद्यपि अभव्य की सर्वथा तो भुक्ति नहीं होती, पर जो कर्म बन्धे हुए हैं, वे ही तो सर्वदा नहीं रहते । वे छूटते हैं, नए बंधते हैं। और यह क्रिया निरन्तर ही चलती रहती है। शुभ योग से , शुभ अध्यवसाय से निर्जरा होती है । पर यह विचित्र बात है कि अशुभ अध्यवसाय से भी निर्जरा होती है। क्षमा से निर्जरा होती है, तो क्रोध से, लड़ाई-झगड़े से भी निर्जरा होती है । अठारह ही पापों के सेवन से निर्जरा होती है। पर तत्त्व-दृष्टि से वह निर्जरा निर्जरा नहीं, जिससे आत्म-शुद्धि नहीं होती। शुभ योग से, तपस्या से होने वाली निर्जरा में पाप का बन्धन नहीं होता, जबकि इसमें नाम मात्र का निर्जरण व विपुल मात्रा में पाप का बन्धन होता है । जो मोहनीय कर्म की प्रकृतियां बन्धन और मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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