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का लगाव है। आप गौर करें, जो आनन्द दूसरों पर आदेश चलाने और अधिकार जमाने में प्राप्त होता है, वह स्वयं को और स्वयं की अन्तरंग वृत्तियों को संयत करने में उपलब्ध नहीं होता । एक युद्ध शांत होता है कि दूसरा शुरू हो जाता है। थोड़ा-सा स्वार्थ टकराया कि लड़ाई चाल हो जाती है। सत्ता और पूंजी के केन्द्रीकरण में उन्माद भर जाता है । स्वाधीन रहना सबको प्रिय है । भौगोलिक सीमाओ ने विसी राष्ट्र को छोटा बना रखा है तो किसी को बड़ा । जो बड़े राष्ट्र हैं, वे छोटे राष्ट्रों पर मनमानी करना चाहते हैं, अपनी इच्छा थोपना चाहते हैं। बड़े राष्ट्रों का उन्माद
और छोटे राष्ट्रों का स्वातंत्र्य-प्रेम-ये दोनों परस्पर टकराते हैं । इसमें मुख्य रूप से विचारणीय बात बड़े राष्ट्रों के लिए है । उनका उन्माद असंयम की उपज है । उसे मिटाये बिना विश्व का भला होने वाला नहीं है । सत्ता और अर्थ के विकेन्द्रीकरण की बात अब राजनीति के साथ भी जुड़ गई है। किन्तु प्रश्न यह है, वह सफल कैसे हो? पारस्परिक विश्वास समाप्त होता जा रहा है । विलास का भाव बढ़ रहा है। जटिलताएं अनगिनत हैं । विकास को यंत्रों एवं शस्त्रास्त्रों से मापा जा रहा है। बहुत स्पष्ट है कि मूल्यांकन की दृष्टियां बाहर से चिपक गई हैं । अन्तरंग-शुद्धि की ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है । आवश्यकता है, सारी स्थिति को नए सिर से पढा जाए, देखा जाए।
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मानवता मुसकाए
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