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३४. चितन का आकाश
मानसिक स्वतंत्रता
जन्म से लेकर मौत तक जो समान भाव से प्रिय है, वह है व्यक्तित्व । व्यक्तित्व यानी स्वन्त्रता या अकेलापन । अकेलेपन की मर्यादा है कि वह दूसरों के द्वारा बांधा न जाये । सार्थ या समाज अकेलेपन में बाधक नहीं है । उसमें बाधा डालता है-थोपा हुआ नियन्त्रण । नियन्त्रित दशा में न सुख होता है और न शांति ही । सुख और शन्ति मानसिक अनुभूति के विषय हैं । बंधा हुआ मन उन्हें कैसे समझे। इसलिए सबसे पहली अपेक्षा है- मानसिक स्वतन्त्रता। मानसिक परतन्त्रता
प्रश्न है, मानसिक परतंत्रता कहां से आती है ? क्यों आती है ? मानसिक परतंत्रता बाहरी नियंत्रण से आती है और उसके आने का हेतु है-अपना असंयम । असंयम यानी प्रसार । व्यक्ति अपनी सहज मर्यादा से बाहर जाता है, तब बाहरी नियंत्रण उसे आ दबाता है । दूसरे के घर, गांव या देश में जाते-जाते जब दूसरे के अधिकार हथियाने की बात आदमी को सूझी, तब से वह परतंत्र बन गया। स्थितियों के अध्ययन का दृष्टिकोण बदले
आज अर्थ का युग है । सर्वत्र उसका प्रभुत्व है । ऐसा लगता है कि पवित्रता की बात गौण-सी हो गई है। यह स्पष्ट रूप में माना जाने लगा है कि अर्थ-व्यवस्था सभी प्रकार की बुराइयों और अच्छाइयों के केन्द्र में है । पर मेरा चितन इससे भिन्न है। यद्यपि बुराइयों और अच्छाइयों के घटने-बढने में अर्थ-व्यवस्था के प्रभाव की बात को मैं सर्वथा अस्वीकार नहीं करता । यह संभव है, आर्थिक कठिनाई के समय कुछ बुराइयों को प्रोत्साहन मिले और अर्थ की सुविधा होने पर कुछ बुराइयां सहज रूप से मिट जाएं, तथापि वास्तव में अर्थ-व्यवस्था अच्छाइयों और बुराइयों के मूल में नहीं है। फिर उनका मूल क्या है ? मेरी दृष्टि में उनका मूल है-अन्तर् की वृत्तियां और मान्यताएं । उनका संयम-असंयम से बहुत गहरा लगाव है । निकट
चितन का आकाश
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