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३३. ज्ञान और श्रद्धा का योग हो
अपेक्षित है आत्म-निरीक्षण
यह एक असंदिग्ध बात है कि विज्ञान ने आज बहुत उन्नति की है । उसने ऐसे-ऐसे अनेक आश्चर्यकारी साधन विकसित किए हैं, जो वर्षों में न निपटने वाला कार्य घंटों में निपटा देते हैं । ऐसे-ऐसे शस्त्र निर्मित किए हैं, जो कुछ ही क्षणों में शत्रु - देश के अस्तित्व को समाप्त कर विजय दिला सकते हैं । पर इसी के समानान्तर यह भी एक कटु सत्य है कि वह जीवन के अंतर्पक्ष की अवनति का निमित्त बना है । उसके कारण आज नैतिक मूल्यों का तेजी से विघटन हो रहा है । व्यक्ति का आचरण भ्रष्ट होता जा रहा है । स्वार्थवृत्ति इतनी बढ़ रही है कि सत्य, प्रामाणिकता, ईमानदारी जैसे मानवीय गुण जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं । इसके अभाव में मानव मानव कहलाने का कितना अधिकारी रहता है, यह बताने की मुझे जरूरत नहीं है । ऐसे भयावह नैतिक एवं चारित्रिक दुर्भिक्ष के वैषम्यपूर्ण युग में जन-जन को अपना आत्म निरीक्षण करना चाहिए, अपने-आपको टटोलना चाहिए । हर्मुखता को तकर अन्तर्मुखता की ओर मुड़ना चाहिए । जीवन को नैतिक, चारित्रिक एवं मानवीय प्रतिष्ठा के अनुरूप ढालना चाहिए । ऐसा करके ही वे अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं । अणुव्रत आन्दोलन इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए उनके लिए दिशासूचक यंत्र का काम कर सकता है ।
विकास: दो पक्ष
अन्तर्-विकास के दो पक्ष हैं-ज्ञान और आचार | ज्ञान से हमारी दृष्टि निर्मल बनती है, हेय और उपादेय का विवेक जागता है । आचरणीय एवं अनाचरणीय के बीच की भेदरेखा ज्ञात होती है । पर ज्ञान के साथ श्रद्धा का अनिवार्य रूप से योग अपेक्षित है । श्रद्धाशून्य ज्ञान व्यक्ति को मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता । श्रद्धायुक्त होने के बाद ही वह अपने-आपमें पूर्ण होता है । ऐसा ज्ञान ही व्यक्ति के जीवन में सत्य, समता, अहिंसा आदि गुणों को प्रकट करने में सक्षम होता है । आज कहने के लिए तो ज्ञान बहुत बढा है,
ज्ञान और श्रद्धा का योग हो
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