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३१. धर्म का आधार
विद्याध्ययन की सार्थकता
आज मैं विद्यार्थियों से कुछ बातें कहना चाहता हूं। विद्यार्थी सबसे पहले इस बिन्दु पर अपना ध्यान केन्द्रित करें कि भारतीय परम्परा में केवल जड़ विद्या या जड़ ज्ञान को वास्तविक ज्ञान नहीं माना गया है । ढेर सारी पुस्तके पढ़ लेने मात्र से कोई पण्डित नहीं बन जाता। जड़ ज्ञान या जड़ विद्या का अर्थ आप समझे । इन्द्रियों के स्तर पर होने वाला ज्ञान जड़ ज्ञान है । इन्द्रियों से परे जो ज्ञान या विद्या है, वह चेतन ज्ञान है, चेतन विद्या है। पुस्तकें और 'इन्द्रियां तो मात्र सहारा या साधन हैं। यदि व्यक्ति में चेतना न हो तो क्या इन्द्रियां उसे ज्ञान करा सकेंगी। पुस्तकें उसके ज्ञानी बनने में साधन बन सकेंगी। वे सहारा या साधन तभी बनती हैं, जब चेतना मौजूद हो । ऐनक 'देखने में तभी सहयोगी बनता है, जब आंखों में रोशनी हो । यदि रोशनी ही नहीं, तो ऐनक बेचारा क्या करेगा। ऊंचे-से-ऊंचे नम्बर का ऐनक व्यक्ति भले लगा ले, पर उसे कुछ भी दिखाई नहीं देगा । इसलिए यह नितान्त अपेक्षित हैं कि विद्यार्थी केवल पुस्तकीय ज्ञान या जड़ ज्ञान तक ही सीमित न रहें। वें चेतन ज्ञान की प्राप्ति के लिए सदैव सचेष्ट रहें। तभी उनके विद्याध्ययन की सच्ची सार्थकता है। धर्म अध्यात्म-आधारित हो।
दूसरी बात-विद्यार्थियों को यह समझना है कि भारतवर्ष का सांस्कृतिक गौरव धर्म है, अध्यात्म है। हालांकि दूसरे-दूसरे देशों में भी धर्म नहीं है, ऐसी कोई बात नहीं है, पर वहां धर्म की अवधारणा भारतवर्ष की एतद् विषयक अवधारणा से भिन्न है। वहां धर्म का विकास मुख्यतः राष्ट्रीय हित-संरक्षण के आधार पर हुआ है । कुछ देशों में लोग दूध में पानी इसलिए नहीं मिलाते कि उससे राष्ट्र के नागरिकों का स्वास्थ्य खराब होता है, राष्ट्र शारीरिक दृष्टि से रुग्ण बनता है। पर भारतवर्ष में धर्म का विकास इस भित्ति पर नहीं हुआ है। यहां नीति और धर्म राष्ट्र-प्रतिष्ठित नही हैं। यहां उनका मूलभूत आधार अध्यात्म है। आज भी यहां के कण-कण में अध्यात्म का स्वर अनुगुंजित है। विनोबाजी ने अपने आंदोलन का नाम
मानवता मुसकाए
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