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३०. बुराइयों का मूल
___ मैं देख रहा हूँ, आज भारतवर्ष नाना प्रकार की बुराइयों से ग्रस्त है। मैं ही क्यों, आप भी तो इसी प्रकार की अनुभूति करते ही होंगे । व्यापारी-वर्ग अपने व्यापार-व्यवसाय में प्रामाणिकता, नैतिकता, ईमानदारी और सचाई को ताक पर रखकर अप्रामाणिकता, अनैतिकता, बेईमानी एवं झूठ को खुलेआम चला रहा है। गलत-से-गलत काम करते, ग्राहकों को भयंकर-से-भयंकर धोखा देते उसके आत्म-प्रकम्पन तक नहीं होता। इसी प्रकार एक राज्य-कर्मचारी पैसों के लोभ में आकर बड़े-से-बड़ा अन्याय और पक्षपात करते नहीं सकुचाता। कमोबेश इसी तरह की स्थिति सभी वर्गों की है। समाज का कोई भी वर्ग ऐसा नजर नहीं आता, जो बुराइयों से सर्वथा अछूता हो । कहा जाता है कि इन बुराइयों का मूल हेतु अभाव और परिस्थितियां हैं। हालांकि इस कथन में एकान्ततः सचाई है ही नहीं, ऐसा तो मैं नहीं कहता, पर यह सर्वाशतः तथ्यपरक है, ऐसा भी नहीं मानता। क्यों ? इसलिए कि अभाव और प्रतिकूल परिस्थितियों के समाप्त हो जाने के पश्चात् भी बुराइयां मिटती नजर नहीं आतीं । ऐसे अनेक व्यक्ति आपको देखने को मिल सकते हैं, जिनके आज कोई अभाव नहीं है, दूसरी-दूसरी परिस्थितियां भी अनुकूल हैं, उसके उपरांत भी वे बुराइयों में लिप्त हैं। अमानवीय व्यवहार एवं आचरण करते हैं। इसलिए मैंने कहा कि अभाव एवं परिस्थितियों को बुराइयों का ऐकान्तिक कारण नहीं माना जा सकता।
वन्धुओ ! मेरे चिन्तन में बुराइयों का मूलभूत कारण है- मानव का मानस । पदार्थ के प्रति उसके मन में जो अत्यधिक लोलुप-वृत्ति पैदा हो गई है, उससे उसकी विवेक-चेतना आवृत हो गई है। इसके फलस्वरूप ही वह औचित्य-अनौचित्य, करणीय-अकरणीय, न्याय-अन्याय की भेद-रेखा नहीं खींच पाता । अतएव सबसे पहली आवश्यकता इस बात की है कि मानव अपने मानस का सुधार करे। यह सुधार हुए बिना ऊपर के परिवर्तनों से काम बनेगा नहीं । अणुव्रत आंदोलन के रूप में हमने एक व्यापक कार्यक्रम चलाया है। यह मानव-जीवन में परिव्याप्त अनैतिकता, भ्रष्टाचार के घाव का आन्तरिक पीप सुखाना चाहता है, ताकि मानव अप्रामाणिकता, विश्वासघात, असत्याचरण, शोषण जैसी कलुषित वृत्तियों से दूर रहता हुआ स्वस्थ जीवन जीने के पथ पर आगे बढ सके ।
बुराइयों का मूल
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