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में आ रहे हैं । स्थान-स्थान पर विश्वविद्यालय स्थापित किए जा रहे हैं। साहित्य पर साहित्य छप रहा है । पुस्तकों का अंबार लग रहा है । समाचारपत्रों का बोलबाला है। पर इन सबके बावजूद जाने क्या बात है कि मानव अपने जीवन-स्तर को विकसित करने के स्थान पर चारित्रिक ह्रास की ओर बढता जा रहा है। जीवन का स्तर : जीने का स्तर
बारीकी से ध्यान देने पर स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि आज 'धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां' की स्थिति बन गई है। जो भारतवर्ष धर्मप्रधान देश था, आज उसी भारत के सपूत जघन्य-से-जघन्य काम करते हुए सकुचाते नहीं हैं। जिन भारतीयों का नारा 'आचारः प्रथमो धर्मः' था, उन्हीं के लिए आज विलास सर्वोपरि तत्त्व हो रहा है। जहां जीवन के स्तर को ऊंचा उठाना चाहिए था, वहां जीने के स्तर को ऊंचा उठाया जा रहा है । सबमें एक ही लगन है, एक ही धुन है----जीने के स्तर में हम किसी से कम न रहें। यानी इस क्षेत्र में आगे-से-आगे बढने के लिए एक अनायोजित प्रतिस्पर्धा-सी चल रही है। लोगों ने जीवन की परिभाषा को ही बदल डाला है। आज जीवन की परिभाषा बन रही है-आधुनिक सभी प्रकार की सुख-सामग्री से संपन्न होना । व्यक्ति की चाह है---मेरे पास कोठी हो, मोटर हो, रेडियो हो, सोफा-सेट हो, मेज-कुर्सी हो, बाहर बाग हो, फव्वारा हो, खेल-कूद और अन्य मनोरंजन के साधन हों, ....." । पर ये सब तो वास्तव में सुख-सुविधा के साधन हैं, जीवन से इनका कोई संबंध नहीं है। जीवन तो इनसे बहुत आगे का तत्त्व है। पर कैसी विडम्बना है कि मानव इस तथ्य पर तनिक भी गौर नहीं कर रहा है !
फैशन की बीमारी
लोग कहते हैं कि आज संसार में बीमारियां बहुत बढ़ गई हैं। बात गलत तो नहीं है। नित नई-नई बीमारियां प्रगट हो रही हैं। डॉक्टर लोग औषधियों से एक बीमारी को कुछ नियंत्रित करते हैं कि दो नई बीमारियां और जनम ले लेती हैं। इस स्थिति से लोग बहुत चिंतित हैं । पर मेरी दृष्टि में बड़ी-से-बड़ी किसी शारीरिक बीमारी से भी अधिक घातक है फैशन की बीमारी । ऐसा प्रतिभासित हो रहा है कि जन-मानस एक अंधी दौड़ दौड़ा जा रहा है। किसी को रुक कर दो क्षण सोचने का अवकाश भी नही है। यों भाई भी पीछे नहीं हैं, पर बहिनें तो दो कदम और आगे हैं। मुझे यह
मानवता मुसकाए
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