________________
२८. विकास या ह्रास ?
बोलने की सार्थकता
बोलते सब हैं । मनुष्य बोलते हैं । पशु बोलते हैं । पक्षी भी बोलते हैं । चारों ओर शोर-गुल है। सुनते-सुनते लोगों के कान बहरे-से होते जा रहे हैं। पर मैं नहीं समझता, उस बोलने का क्या महत्त्व, जिसमें कोई सार नहीं, संयम की पुट नहीं, जिससे जनता को जीवनशुद्धि की कोई प्रेरणा मिले ही नहीं । वस्तुत: वही बोलना सही माने में बोलना है, जिसमें कुछ सार है, संयम का संदेश है, जन-जीवन के लिए मार्ग-दर्शन है। दिग्भ्रांत मानव
आज के मानव के पैरों तले जमीन दिखाई नहीं देती। लगता है, वह दिग्भ्रांत है, किंकर्तव्यविमूढ है । उसे समझ नहीं पड़ रहा है कि वह क्या करे ? 'इतो व्याघ्रः इतस्तटीः' की-सी स्थिति बन रही है। एक राहगीर जंगल से होकर गुजर रहा था। मार्ग में सामने से आते हुए किसी व्यक्ति ने बताया, आगे बाघ है । छूटते ही वह उल्टा दौड़ा। इधर आता है तो क्या देखता है कि नदी में बाढ आ गई है। अब वह क्या करे ? किधर जाए ? अपनी जान कैसे बचाए ? दोनों ओर मौत मुंह खोले खड़ी है। गिरता जीवन-स्तर
प्रश्न है, मानव की ऐसी स्थिति क्यों बनी ? इसका उत्तर बहुत स्पष्ट है । जीवन के रूप में उसने एक अमूल्य निधि प्राप्त तो अवश्य की, पर उसे अच्छे ढंग से सम्हाल कर नहीं रख सका। उसकी विशेषता, गरिमा और समझदारी तो तब थी, जब वह उसका विकास करता। पर आज विकास तो कहीं रहा, उल्टा ह्रास हो रहा है। लेकिन दोष भी किसे दिया जाए। युग का प्रवाह ही कुछ ऐसा है।
आज देश में ज्ञान-विज्ञान का अभाव नहीं है। शिक्षा क्रमश: बढ़ती जा रही है । स्कूलों पर स्कूल खुलते जा रहे हैं । कॉलेजों पर कॉलेज अस्तित्व
विकास या ह्रास?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org