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निकट से होता है । अभाव विवशता से होता है। वह दुःख देता है। पदार्थ का अभाव हो, यह कोई कैसे चाहेगा। अति-भाव की चाह होती है, पर वह करनी नहीं चाहिए। यथाभाव की क्षमता समाज-व्यवस्था में है। जो नहीं होना चाहिए, उसके निवारण की क्षमता त्याग या व्रत में है। अणुव्रत का सन्देश यही है-जो नहीं होना चाहिए, उससे दूर रहो। यह व्यवस्थाओं की स्वयं स्फूर्त व्यवस्था है । सुख का हेतु अहिंसा या मैत्री है । उसका आधार अनपहरण है। जो व्यक्ति दूसरों के स्व का अभी हरण नहीं करता, वह सबका मित्र है । सुख की दृष्टि बाहरी पदार्थों से बंधी हुई है। यह भूल है । इससे मानसिक असमाधि बढ़ती है । भगवान महावीर ने कहा-'महा-आरंभ नरक का हेतु है ।' नरक कोई माने या न माने, वह आगे की बात है, किन्तु उससे दुर्गति होती है, इसमें कोई संदेह नहीं । महा-आरम्भ का उद्देश्य महापरिग्रह है। महा-परिग्रह का उद्देश्य है--महाभोग या महा-विलास । क्रम यों हुआ-महा-विलास के लिये महा-परिग्रह, महा-परिग्रह के लिये महाआरम्भ, जिसका कि मूल दुर्गति है । तब उसके पत्र-पुष्प में सुरभि कहां से होगा। महा-आरम्भ को आज की भाषा में बड़ा उद्योग कहा जा सकता है।
राष्ट्रीय दृष्टि से बड़े-बड़े उद्योगों को महत्त्व मिलता होगा, प्रोत्साहन भी मिलता होगा, मुझे पता नहीं। मैं चरित्रशुद्धि की दृष्टि से बात कह रहा हूं । सुख-शान्ति की दृष्टि से बात कर रहा हूं। चरित्रशुद्धि व सुख-शांति की दृष्टि से महा-आरम्भ और महा-परिग्रह आदरणीय/उपादेय नहीं हैं-यह ऋषिवाणी है । निष्ठापूर्वक आरम्भ और परिग्रह के अल्पीकरण से चरित्रशुद्धि की दिशा में प्रगति होती है, सुख-शांति का विकास होता है, यह अनुभवगम्य भी है। आप भी इस दिशा में प्रयाण कर इस सचाई का अनुभव कर सकते हैं।
मानवता मुसकाए
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