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________________ २७. सुख-दुःख का मूल विपर्यय हो रहा है जीवन के मूल्य बदलने हैं, मूल्यांकन की दृष्टियां बदलनी हैं। परन्तु वे नहीं बदल रहे हैं। इसके विपरीत जो नहीं बदलने का है, वह बदल रहा है । अनुशासन की कमी, विनय की परम्परा का उन्मूलन, त्याग के प्रति अश्रद्धा, स्वार्थ की प्रचुरता-~-ये नहीं बढने चाहिए, पर बढ रहे हैं। उद्दण्डता बढ़ रही है। पुलिस की गोली चलने का क्रम बढ रहा है। शासन का नियंत्रण बढ़ रहा है । स्व-नियमन बढना चाहिए था, पर बढ़ने के स्थान पर कम हो रहा है । यही क्रम चला तो एक दिन सब स्वयं को खतरे में पाएंगे। __ स्व-नियमन की कमी बढती है, तब सभी को दुःख होता है। शासक भी पछताते हैं, जन-नायक भी पछताते हैं, और-और भी। किन्तु कोरे पछताने से क्या होगा। स्व-नियमन की परम्परा को छोड़ दूर भागने का दुष्परिणाम तो भोगना-ही-भोगना होगा । दुःख का मूल भगवान महावीर ने कहा- 'दुःख हिंसाप्रसूत है, दुःख आरम्भप्रसूत है।' इन दो शब्दों की परिधि में वर्तमान की सारी कठिनाइयां समाहित हैं। हिंसा का पहला प्रसव है--वैर-विरोध, दूसरा है-भय और तीसरा है दुःख। __ आरम्भ का पहला प्रसव है-संग्रह, दूसरा है-- वैषम्य और तीसरा है-दुःख । किन्हीं को अति-भाव सता रहा है और किन्हीं को अभाव । अति-भाव के पीछे संरक्षण का रौद्रभाव है और अभाव के पीछे प्राप्ति की आर्त्त-वेदना। सुख का मूल सुख का हेतु अभाव भी नहीं है, अति-भाव भी नहीं है। सुख का हेतु स्वभाव है। मानव अपने स्वभाव से जितना दूर हटता है, उतना ही अति-भाव, पदार्थ का अति-संग्रह करने लगता है। पदार्थ से दूर हटने का मतलब है-स्वभाव की ओर गति । स्वयंकृत अभाव में स्वभाव का दर्शन सुख-दुःख का मूल ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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