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प्रयत्न करते । यहां तक कि वे दुकानों में जाकर ठहरते। जब ग्राहक माल खरीदने आते, तब तो दुकानदार उन्हें सौदा देते और जब ग्राहक नहीं होते, तब वे (आचार्य भिक्षु) लोगों को तत्त्व समझाते । इस प्रकार अनेक लोगों को उन्होंने अपनी बात समझाई। हम तो उनके ही पदचिह्नों का अनुगमन करने वाले हैं । अतः हमें भी लोगों को समझाने के लिए घर-घर जाना पड़े तो इसमें संकोच कैसा, शर्म कैसी। यह तो हमारा कर्तव्य है और कर्तव्य-पालन में प्रसन्नता एवं आत्मतोष की अनुभूति होती है ।
मानवता मुसकाए
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