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और यह स्वाभाविक भी है। पहले वातावरण बनता है। फिर लोगों की आस्था जमती है। आस्था जमने के पश्चात् ही तदनुकूल आचरण बनने का क्रम आता है। अतः संयमकेन्द्रित जो बातें हम बता रहे हैं, उन पर लोगों की आस्था भी हो जाए तो मैं इसे बहुत बड़ी उपलब्धि मानता हूं। मैं देख रहा हूं, आज लोग अणुव्रत-आंदोलन की बातों को न केवल ध्यान से सुन ही रहे हैं, बल्कि उन पर सहानुभूतिपूर्वक चितन भी कर रहे हैं। यह निश्चित ही भविश्य के लिए एक शुभ संकेत है। मैं मानता हूँ, यह स्थिति अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करने का ही परिणाम है। यदि लोगों के नहीं सुनने या कम सुनने की बात से हताश-निराश होकर हम अपना काम छोड़ देते तो यह स्थिति कैसे निर्मित होती। आज भी इसी निष्ठा के साथ हम कार्य कर रहे हैं । हमें उनके पास जाना चाहिए
पिछले दिनों हम हाथरस में थे। प्रवासकाल के दौरान वहां एक व्यापारी-सम्मेलन का आयोजन हुआ। उसमें व्यापारियों की उपस्थिति नगण्य-सी ही थी। पर इससे मैं निराश नहीं हुआ। मैंने हार नहीं मानी। मैंने अपने साधुओं से कहा-'व्यापारी लोग यहां नहीं आए तो क्या, हमें उनके पास जाना चाहिए ।' फिर देर किस बात की थी। साधु लोग कड़कड़ाती धूप में दुकान-दुकान पर गए और व्यापारियों को संयम का तत्त्व बताया, नैतिकता एवं प्रामाणिकता की बातें समझाई। इसका परिणाम बहुत ही सुन्दर आया । सौ से अधिक व्यापारियों ने कम तोल-माप और मिलावट न करने की, धोखाधड़ी और अप्रामाणिकता न बरतने की प्रतिज्ञाएं कीं। आज के इस युग में जबकि लोगों की यह आस्था बन रही है कि सचाई और नीति-निष्ठा से व्यापार नहीं चल सकता, सौ से अधिक व्यापारियों द्वारा इस प्रकार की प्रतिज्ञाएं करना, क्या आश्चर्य की बात नहीं है। कहने का तात्पर्य इतना ही है कि यदि व्यक्ति निष्ठापूर्वक कर्तव्यरत रहता है तो उसका अनुकूल परिणाम आना अवश्यंभावी है। प्रेरणा के स्रोत
___बन्धुओ ! कर्तव्य-पालन की यह प्रेरणा हमें आचार्य भिक्षु से मिली है । वे आज से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व हुए। तेरापंथ धर्मसंघ, जिसका कि मैं आचार्य हूं, उसके प्रणेता वे ही थे। धर्म के क्षेत्र में उन्होंने एक महान क्रांति की थी । तेरापंथ उसी धर्म-क्रांति की निष्पत्ति है। धर्मक्रांति के प्रारंभिक दिनों में, जैसा कि स्वाभाविक है, लोग उनको सुनने के लिए बहुत कम आया करते । ऐसी स्थिति में वे लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए नानाविध
उपदेश करना हमारा कर्तव्य है
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