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२६. उपदेश करना हमारा कर्तव्य है
लोग अवश्य सुनेंगे
___ मैं प्रतिदिन प्रवचन करता हूं, उपदेश देता हूं। पर उपदेश देना मेरा कर्तव्य मात्र है, व्यवसाय नहीं । कर्तव्य और व्यवसाय में एक मौलिक अन्तर है। व्यवसाय करना पड़ता है, जबकि कर्तव्य आत्म-प्रेरणा से सहज किया जाता है । मैं नहीं समझता, बिना कर्तव्य-पालन के व्यक्ति को तोष कैसे मिल सकता है। चैन कैसे पड़ सकता है। अत: भले ही लोग कम आएं या बिलकुल ही कम आएं, पर कर्तव्य-बोध का भाव साधक को प्रवचन करने की बराबर प्रेरणा देता है। इसलिए आप लोग सुनेंगे तो भी बोलंगा और नहीं सुनेंगे तो भी मुझे तो अपने कर्तव्य का पालन करना ही है। आप कहेंगे, कोई सुनने वाला ही नहीं होगा तो आप किसे सुनाएंगे? नहीं, तब भी मैं सुनाऊंगा, चुप नहीं रहूंगा। तब मैं कपाटों को सुनाऊंगा, खाली हॉल को सुनाऊंगा। यदि मेरी आवाज में ताकत होगी तो आज नहीं कल, कल नहीं परसों, ...... वह आपको अवश्य यहां खींच लाएगी। शास्त्रों में कहा हैमनुष्य यदि तीव्र प्रयत्न से बोलता है तो उसकी आवाज समूचे लोक में फैल जाती है । अतः यदि मैं तीव्र प्रयत्नपूर्वक बोलंगा तो मेरी आवाज सारे लोक में व्याप्त हो जाएगी। उसे आप रोक नहीं सकेंगे । आप क्या, कोई भी नहीं रोक सकता । और तो क्या, आज तो विज्ञान भी अपनी भाषा में इस कथन पर प्रामाणिकता की मुहर लगाता है । एक उपलब्धि
बन्धुओ ! एक दिन वह भी था, जब लोग हमें साम्प्रदायिक एवं प्रतिक्रियावादी बताकर हमारी बात की उपेक्षा कर दिया करते थे । पर हम इस स्थिति में भी निराश नहीं हुए। हमने अपना कार्य पूरी निष्ठा के साथ चालू रखा। उसे बंद नहीं किया। उसी का परिणाम है कि आज एक परिवर्तन स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है । लोग हमारी कुछ-कुछ बातें सुनने लगे हैं। हालांकि यह तो नहीं कहा जा सकता कि जो कुछ सुनते हैं, उसको सब लोग आचरण में भी ढालते हैं। पर आशा करता हूं कि एक दिन ऐसा भी आएगा, जब सुनी हुई बातों को लोग आचरण में लाने का प्रयत्न करेंगे।
मानवता मुसकाए
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