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________________ २५. संकीर्णता और विशालता उनका आभारी हूं आजकल व्यापकता की चर्चा बहुत है। चर्चा बुरी नहीं है, बल्कि अच्छी है। पर कठिनाई यह है कि लोग इसे सही संदर्भ में नहीं समझते । प्रवाह में बह जाते हैं। मैं मानता हूं, यह एक प्रकार का व्यामोह है, जो उचित नहीं है। कुछ लोग मेरे बारे में भी ऐसा मानते हैं कि मैं एक संकीर्ण दायरे में हं । उनका चिंतन है कि मैं उसे छोड़कर बाहर आ जाऊं। मैं उनकी इस भावना के लिए आभारी हूं कि वे मुझे बहुत व्यापक भूमिका में देखना चाहते हैं, संकीर्ण दायरे में देखना नहीं चाहते । पर मैं उनसे कहना चाहता हूं कि वे पहले वास्तविकता को समझे । वे जिसे संकुचित दायरा समझते हैं, वह वास्तव में संकुचित दायरा है नहीं। यदि मुझे ऐसा अनुभव हो जाए कि वह संकुचित दायरा है तो मैं आज ही उसे तोड़ डालू । इसमें मुझे तनिक भी हिचकिचाहट या संकोच नहीं होगा। पर क्या करू, अभी तक मुझे ऐसा किचित् भी अनुभव नहीं हो रहा है । संकीर्णता की परिभाषा ___इस संदर्भ में मेरा चिंतन यह है कि किसी समाज या सम्प्रदायविशेष में रहने मात्र से व्यक्ति संकीर्ण नहीं बन जाता। हां, जो व्यक्ति इसमें संकीर्णता के दर्शन करता है, उसकी संकीर्णता अवश्य प्रगट होती है। व्यक्ति कहीं-न-कहीं तो रहेगा ही। वस्तुतः संकीर्णता स्थान से नहीं, हृदय से आती है। यदि व्यक्ति का हृदय संकुचित है, तो वह कहने के लिए चाहे कितने भी विशाल दायरे में क्यों न रहे, विश्व-बंधुत्व व 'वसुधैव कुटुंबकम्' की बातें क्यों न करे, उसका दायरा विशाल नहीं बन सकता । इसके विपरीत यदि हृदय में उदारता है, विचार व्यापक हैं, दृष्टिकोण असंकीर्ण है तो कहीं भी रहकर वह व्यापक दायरे में ही है। इस परिप्रेक्ष्य में मैं पूछना चाहता हूं, किसी समाज और सम्प्रदायविशेष में रहने मात्र से मेरे पर संकीर्णता आरोपित करना कहां तक न्यायोचित है ? ५२ मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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