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________________ यह तो मैं नहीं कह सकता, पर ऐसा कर तुम हमारा तो निश्चय ही उपकार करते हो । तुम्हारी आलोचना सुन-सुनकर हमें तो आत्म-निरीक्षण का अवसर मिल ही जाता है। हां, एक बात अवश्य है । मुझे इस बात की चिन्ता है कि तुम इस प्रवृत्ति के द्वारा कहीं अपना नुकसान न कर बैठो।' मैं मानता हूं, यदि तटस्थ दृष्टि से दोष-दर्शन और आलोचना होती है तो कोई अनुचित बात नहीं है। मैं तो स्वयं दोषदर्शी हूं। जब-कभी कोई साधु मेरे पास कुछ लिखकर लाता है, तो जाने क्यों मेरी दृष्टि सबसे पहले उसमें रही गलतियों पर जाती है और मैं उनकी ओर उसका ध्यान आकर्षित करता हूं। पर यह कार्य मैं द्वेष-बुद्धि से नहीं, कर्तव्य एवं दायित्व-बुद्धि से करता हूं, तटस्थ दृष्टि से करता हूं। इसलिए मैं इसमें किसी प्रकार की बुराई नहीं देखता, बल्कि आवश्यक मानता हूं । अन्यथा सुधार/परिमार्जन कैसे होगा । मैं सोचता हूं, व्यक्ति की यह सहज वृत्ति होनी चाहिए कि जब-कभी किसी की गलती उसके ख्याल में आए तो वह अवसर देखकर एकान्त हित-बुद्धि से उसके सामने रख दे। इससे उसका लाभ ही होगा। उसको अपनी भूल को समझने का मौका मिलेगा। बहुत संभव है, वह उससे उपरत होने के लिए जागरूक बनेगा ! यों तो सबकी मनोवृत्ति एक जैसी नहीं होती, इसलिए सबके बारे में निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता, पर मेरी मनोवृत्ति यह है कि जब कोई मेरे पास मेरी आलोचना लेकर आता है, मेरी भूल बताता है तो मुझे आंतरिक प्रसन्नता होती है। मेरे हितैषी के रूप में मैं उसका हार्दिक स्वागत करता हूं। मूलभूत बात यह है कि साधक हर अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहे, अपना संतुलन न खोए। इसी में उसकी साधना सुरक्षित है। समो निदा पसंसासु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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