SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रशंसा करना और सुनना-दोनों ही दोष नहीं हैं । दोष है उसमें आसक्त होना । स्थानांग सूत्र में कहा गया है-आत्मवान् की प्रशंसा करना तो उसके हित का कारण हो जाता है और अनात्मवान् की प्रशंसा करना उसके अहित का कारण । आत्मवान् यदि अपनी प्रशंसा सुनता है तो वह उसमें आसक्त नहीं होता, बल्कि उसके अन्तर् में अपनी साधना के प्रति, अपने कार्य के प्रति एक आत्मविश्वास पैदा होता है। वह अपने ऊपर अच्छे बने रहने, अच्छा कार्य करने की नैतिक जिम्मेवारी समझने लगता है। वह बराबर सोचता है, कहीं ऐसा न हो जाए कि मैं प्रशंसा करनेवालों की अपेक्षा के अयोग्य निकल जाऊं । इसलिए मुझे सदैव अप्रमत्त रहना चाहिए । इस चिंतन के साथ वह अपनी साधना-आराधना में पहले से ज्यादा जागरूक बन जाता है। नए उत्साह और संकल्प के साथ अपने कर्तव्य एवं कार्य में केन्द्रित हो जाता है। आलोचना आत्मालोचन की प्रेरणा है ___ आलोचना और विरोध के संदर्भ में भी तो यही बात है। साधक आलोचना और विरोध में भी समत्व में अवस्थित रहने का प्रयास करे । उसे सुन-देखकर रोष-आक्रोश तो करे ही नहीं, मन में हीन भावना भी न लाए । अपने को दीन-क्षीण भी न समझे । कोई माने या न माने, पर यह एक यथार्थ है कि मुझे आलोचना सुनने में बड़ा आनन्द मिलता है । इससे मुझे अपना आत्म-निरीक्षण करने का अवसर मिलता है। अपनी कमजोरी और प्रमाद को देखने का अवसर प्राप्त होता है। यदि व्यक्ति केवल अपनी प्रशंसा-ही-प्रशंसा सुनता रहता है तो उसके आत्म-निरीक्षण की संभावना क्षीणप्रायः रहती है। मैं अपने मन की बात सुनाता हूं-कभी-कभी लम्बे समय तक जब मैं अपनी आलोचना नहीं सुनता हूं तो मन में चिंतन उभरता है---क्या बात है ? कहीं मैं किसी गलती पर तो नहीं चला जा रहा हूं? कालान्तर में जब कहीं से थोड़ी-बहुत आलोचना का स्वर सुनता हूं तो आत्मालोचन का अवसर उपलब्ध हो जाता है और मैं अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित हो जाता हूं। कहीं कोई प्रमाद हो रहा था तो मेरे ख्याल में आ जाता है और मैं उसको मिटाने के लिए जागरूक बन जाता हैं। प्रसंग बम्बई का यद्यपि अपनी आलोचना सुनना बहुत-सारे लोगों को अप्रिय और अरुचिकर लग सकता है, पर गहराई से देखा जाए तो वह उसके लिए श्रेयस्कर ही है। बम्बई का प्रसंग है। एक दिन एक आलोचक व्यक्ति मेरे पास आया। मैंने उससे कहा---'भाई ! आलोचना से तुम्हारा लाभ होता है या नहीं, मानवता मुसकाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy