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२४. समो निंदा पसंसासु
कांटों का ताज
अणुव्रत आन्दोलन हमारी प्रसिद्धि में बहुत बड़ा निमित्त बना है, यह एक निर्विवाद बात है । पर इस प्रसिद्धि के साथ ही हमारा दायित्व भी कम नहीं बढा है, यह भी मैं अनुभव कर रहा हूं । पिछले दिनों राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति डॉ० राजेन्द्रप्रसाद से हमारा वार्तालाप हुआ । उस वार्तालाप के दौरान उन्होंने अणुव्रत आन्दोलन के कार्यक्रम की मुक्तकंठ से प्रशंसा की । स्थान पर लौटने के पश्चात् मैंने अपने संतों से कहा - 'वस्तुतः यह हमारी प्रशंसा नहीं, बल्कि इस बहाने हमारे पर एक बहुत बड़ी जिम्मेवारी आई है । राष्ट्र का प्रथम नागरिक हमसे बहुत बड़ी अपेक्षा / आशा करता है । अब यदि हम उसके अनुरूप नहीं निकले तो हमारे लिए बहुत सोचने की बात हो जाएगी ।' सचमुच प्रशंसा कांटों का नाज है । जिस व्यक्ति के सिर पर यह ताज रखा जाता है, उसे बहुत सोच-समझकर चलना पड़ता है ।
कार्य के साथ नाम होना एक स्वाभाविक बात है । उसको रोका नहीं जा सकता । और रोकने की वैसे जरूरत भी नहीं है । जरूरत बस इस बात की है कि साधक स्वयं उसकी तनिक भी आकांक्षा न करे । वह उसमें लिप्त न हो । उसको सुनकर मन में फूले नहीं, समभाव में स्थित रहे ।
गुणीजनों की प्रमोद-भाव से प्रशंसा करना व्यक्ति के लिए श्रेय - पथ है । स्वयं भगवान महावीर ने उसको कल्याण का मार्ग बताया है । पर जिसकी प्रशंसा की जाती है, उसके लिए यह एक खतरा है, फिसलनभरी राह है । इसलिए व्यक्ति को कदम-कदम पर सावधान रहना होता है । जरा-सी भी गफलत बड़े-से-बड़े अनिष्ट का कारण बन सकती है । प्रशंसा सुनकर यदि व्यक्ति उसमें लुब्ध बन जाता है, अहंकारग्रस्त हो जाता है, तो उसका पतन अवश्यंभावी है | बहुत सारे व्यक्ति आलोचना के क्षणों में तटस्थ रह जाते हैं, पर प्रशंसा को तटस्थ भाव से नहीं सुन पाते। इसी कारण इसे एक अनुकूल परीषह माना गया है । अतः साधक को इस बारे में अत्यधिक जागरूक रहने की अपेक्षा है |
बहुत से लोग ऐसा भी कहते हैं कि जब प्रशंसा सुनना एक खतरा है तो उसको सुना ही क्यों जाता है । इस सन्दर्भ में मेरा अभिमत यह है कि
समो निंदा पसंसा
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