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________________ 1 1 विरक्ति नहीं है । यदि ऐसा होता तो सबसे ज्यादा विरक्त वे लोग होते, जो जेलों की सीखचों के पीछे पड़े हैं । लेकिन उनको विरक्त नहीं माना जा सकता । शास्त्रीय दृष्टि में विरक्त वह है, जो प्राप्त भागों को स्ववशता में ठुकरा देता है । और जो विरक्त है, वही ज्ञानी है । इस परिभाषा के अनुरूप ही ज्ञानियों से अपेक्षा है । मैं पूछना चाहता हूं, ज्ञानी कहलाकर भी जो अधिक-से-अधिक भोगों को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं, क्या वे अज्ञानी नहीं हैं ? मैं मानता हूं, जो असंयम आज मानव समाज में प्रसार पा रहा है, वह उसके लिए एक शर्म की बात है । पशु भी अपने भोग की एक सीमा रखते हैं । पर मनुष्य ने तो प्राकृतिक सीमाओं का भी अतिक्रमण कर दिया है। पढ़ाई-लिखाई के क्षेत्र में वह बहुत आगे बढ़ा है से उसने प्रकृति को भी एक सीमा तक अपने वश में कर लिया है । पर यह कैसी विडम्बना है कि वह स्वयं पर नियंत्रण नहीं कर पा रहा है ! क्रोध, लोभ, तृष्णा आदि का गुलाम बन रहा है । । अपने पराक्रम शांति का मार्ग शांति का प्रश्न सार्वजनिक है । प्रश्न है, मनुष्य शान्ति को प्राप्त कैसे करे ? वह मनुष्य, जिसने सात समुद्रों का पानी पी लिया है, सारी नदियों और नहरों का पानी पी लिया है, सारे कुओं और तालाबों का पानी पी लिया है, अब यदि वह कपड़े में रहे बूंद-बूंद पानी को निचोड़ निचोड़ कर पी रहा हो तो क्या उसकी प्यास बुझ सकेगी । अग्नि में घी डालने से क्या वह शांत हो सकेगी। ठीक इसी प्रकार भोगों को भोगकर शांति पाना असंभव | आज मनुष्य की स्थिति किससे छुपी है । वह जड़ पदार्थों का कायल हो रहा है । मानना चाहिए, यह प्रकृति की उस पर विजय है । अर्थ का बढ़ता प्रभाव आज मनुष्य पर अर्थ का आधिपत्य हो रहा है । क्या यह उसके अज्ञान की ओर इंगित नहीं करता । समाज और राजनीति पर तो अर्थ प्रभावी है ही, आज वह धर्म और भगवान पर भी अपना आधिपत्य जमाने की कोशिश में है । कैसा आश्चर्य है कि भगवान का नाम लेने के लिए भी मजदूर खरीदे जाते हैं । नाम लेते हैं मजदूर और फल होता है श्रीमान् को ! यह धर्म और भगवान पर अर्थ का आधिपत्य नहीं है तो और क्या है । तत्त्वत: यह् अज्ञान का ही परिणाम है । वस्तुतः ज्ञानी पुरुष कभी भी ऐसा कार्य नहीं कर सकता । कौन होता है सच्चा ज्ञानी ? Jain Education International For Private & Personal Use Only ४७ www.jainelibrary.org
SR No.003128
Book TitleManavta Muskaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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