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२३. कौन होता है सच्चा ज्ञानी ?
आयारो की अर्हत्-वाणी है
जस्सिमे सददा य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति, से आयवं जाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं । अर्थात् जिसके पास शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श आकर वापस चले जाते हैं, वह आत्मवान् है, ज्ञानवान् है, वेदनवान् है, धर्मवान् है और ब्रह्मवान् है ।। आत्मवान् कौन ?
आगम की इस परिभाषा के अनुसार आत्मवान्--चेतन वह है, जो विजातीय तत्त्वों में लुब्ध नहीं होता। वैसे ऐसा कौन-सा प्राणी है, जो चेतन नहीं है । मूलत: इस कथन के पीछे एक विवक्षा है, उसे हमें समझना होगा। इसके पीछे ही क्यों, हमारे हर कथन के पीछे कोई-न-कोई विवक्षा जुड़ी रहती है । उस विवक्षा को समझने से ही उस कथन का सही-सही अर्थ किया जा सकता है। राजर्षि भर्तृहरि ने कहा--'साहित्यसंगीतकलाविहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः ।' जो व्यक्ति साहित्य और संगीतकला से हीन है, वह मनुष्य होकर भी बिना पूंछ और सींग का पशु ही है। क्या कोई मनुष्य भी पशु हो सकता है ? कदापि नहीं। यह तो कहने की एक विवक्षा है। ठीक इसी प्रकार वह मनुष्य चेतन नहीं है, जो काम-गुणों में लुब्ध बन जाता है । काम-गुण उस पर अधिकार जमा लें, इसका तात्पर्य यह हुआ कि वह जड़ का दास हो गया । चेतन कहां रहा । इसलिए हमारे शास्त्रों में चेतन उसे ही माना गया है, जो शब्दादि विषयों में आसक्त नहीं होता, काम-गुणों में लुब्ध नहीं होता। ....... वही ज्ञानी है
आज की भाषा में ज्ञानवान् वह है, जो पढ़ा-लिखा है, जिसने बी. ए., एम. ए. और साहित्यरत्न की डिग्रियां प्राप्त कर ली है। परन्तु शास्त्रों की दृष्टि इससे बिल्कुल भिन्न है । वहां तो ज्ञानवान् उसे कहा गया है, जो विरक्त है। पर विरक्त का अर्थ सही ढंग से समझना अपेक्षित है । भोगसामग्री की अनुपलब्धता की स्थिति में कौन विरक्त नहीं बन जाता। दांत गिर जाने के पश्चात् सुपारी चबाना कौन नहीं छोड़ेगा। पर यह वास्तविक
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मानवता मुसकाए
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